मशविरा
अभी तक सिर्फ सूरत
हम आईने में देखते रहे,
और देख कर इस कदर
अनवरत खुश होते रहे।
आज बहुत दिनों बाद जब
आईने से मुखातिब हुए,
अपनी ही सूरत देख हम
अचानक भयभीत हो गये।
झुर्रियां अब उम्र की बात
निःसंदेह करने लगी थी,
बालों में चाँदी भी लगा
अब स्थान लेने लगी थी।
आँखों के नीचे स्याह दाग
तेजी से पनप रहे थे,
चेहरे भी अब पहले से
कुछ भारी से होने लगे थे।
घबरा कर मैं शीशे से
दूर तेजी से हो गया,
लगा हे नाथ इतना जल्दी
ये क्या से क्या होने लगा?
शीशे के पार से भविष्य ने
जब झाँकना शुरू किया,
कल्पित को सोच मैं
एकदम से सिहर गया।
सामने के सच को मन
स्वीकार नही कर पा रहा था,
जबकि आईना चीख कर
हकीकत बयां कर रहा था।
ठिठक कर हिम्मत जुटाया
आईने के सामने पुनःआया,
सोचा कही यह कोई स्वप्न
तो नही जो मुझे भरमाया।
लगा शायद शीशे में ही
कोई खोट होगा,
अरे उम्र ही क्या हुई मेरी ?
निरापद ऐसा नही ही होगा।
यह सोच मैंने साहस जुटाया
शीशे के सामने पुनः आ गया,
अपनी काठ की हाड़ी को
जैसे चूल्हे पर पुनः चढ़ाया।
पर सत्य तो सत्य ही रहेगा
यह आज फिर सिद्ध हो गया,
पछताने से कुछ होना नही
खेत चिड़िया द्वारा चुग गया।
बहुत से कार्य करने से हम
आज महरूम रह गये,
सोचा ऐसे ही रहेंगे हम सदा
और काम टालते रहे।
दिल मे यौवन मुसलसल
हिलोरे मार रहा था,
जबकि शक्ल असल मे
अपनी व्यथा कह रहा था।
बुढ़ापे की दस्तक सुन मन
एक बारगी घबराने लगा था,
चाह कर भी मैं आज
खुल कर नही रो पा रहा था।
हे भगवान ! अभी मैं
कहाँ ठीक से जी पाया था
जब तक संभलता
युवापन विदा ले रहा था।
काश! कुछ और दिन पहले
जो आइनें के सामने होते,
अपनी खुशियों से शायद
वंचित हम आज नही होते।
बेशक मशविरा अपनो को
मैं आज यह देना चाहता हूँ,
समय से चेत जाओ वरना
पछताओगे,यही मैं कहता हूँ।
निर्मेष इतिहास सदा ही
अपने को दोहराता रहा है,
पिता का कहा हुआ
आज फिर याद आता है।
निर्मेष