मर्जी से अपनी हम कहाँ सफर करते है
दोस्तों,
एक मौलिक ग़ज़ल आप सभी को सादर प्रेषित है,,,
ग़ज़ल
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मर्जी से अपनी हम कहाँ सफर करते है,
रखते तो है पाँव जमीं पर, मगर डरते है।
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रहमोकरम पर चलते है हम हमारा क्या,
रख दे हाथ सिर पर कोई तब निखरते है।
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हताश हमारी हयात, किस पर जोर चले,
अछूत हो जाती चीज,जहाँ हाथ धरते है।
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उठा कर सिर चल पड़े तो शामत हमारी,
न जाने क्या दोष क्यूँ नज़र में अखरते है।
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अमानुष बना के छोड़ा जमाने ने हम को,
कि शब-ओ-रोज घुट-घुट के हम मरते है।
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सिसकती है जिंदगी, इतना जुल्म न करो,
मज़लूम “जैदि” देख तुमको आहें भरते है।
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मायने:-
हताश:-निराश
हयात:-जिंदगी
शामत:-विपत्ति
शबे-रोज:-रात और दिन
मज़लूम:-अत्याचार से पीड़ित
शायर :-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”
बीकानेर।