#ममता का पटबीजना
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★ #ममता का पटबीजना ★
मानव मन पपीहा डोले
जगी ज्ञान की प्यास
बादल बनकर बरस रहे
महर्षि वेदव्यास
सूरज धरा से मिल रहा
अँखियों का निरा भरम है
जीवन का कारण रश्मियाँ
धरती का धीरज धरम है
क्षीरसागर शेष शय्या
प्रसवउपरान्त सृष्टिरचैया
मुस्का रहे ! सुस्ता रहे !
चरण दाबती नारायणी मय्या
कई कल्प कटे मनवन्तर बीते
जुग द्वापर आया इक बार
लोकहित को गीता कहने
आए केशव विष्णुअवतार
कुरुवंश में अँधा राजा
अँधी पुत्रमोह भावना
पाण्डुपुत्र वनों में भटकें
अवांछित कुत्सित कामना
लोभ मोह अहंकार के हाथों
घर-आँगन कलह का बीजना
धन-सम्पत्ति सत्ता का मद
प्रेमचदरिया छीजना
न्यायतुला समकोण में पलड़े
विषम हासपरिहास
नियतिनियन्ता हैं गम्भीर
प्राची रक्तवर्ण आभास
मुरलीधर समझा रहे
जब बंद हों सभी द्वार
हे अर्जुन ! खड्ग उठा और धर्म निभा
मरे हुओं को मार
तू न था तेरी दुविधा न थी
जब नहीं थे यह सारे लोग
न मिलना न मिल बैठना
न कोई दु:खद वियोग
तब भी मैं था अब भी मैं हूं
मुझमें अखिल ब्रह्मांड
मुझमें आकर मिल रहे
सभी सुयोग सब कांड
इस जन्म में उस जन्म में
यही धरती यही आकाश
झोली जितना मिल रहा
सबको बिन प्रयास
उठ कौन्तेय ! कर्म कर
मुझ संग बांध तू डोर
मेरा हो जा मुझमें आ जा
फल की चिंता छोड़
अस्त्र चले ब्रह्मास्त्र चले
चले तीर पर तीर
मानवरक्त बहा ऐसे
जैसे नदिया नीर
द्रोणपुत्र की बुद्धि पर
तभी हुआ वज्र का पात
द्रोपदीपुत्र सोए हुए
मार दिए कर घात
रंगेहाथ पकड़ा गया
नीति-नियम का चोर
कोई कहे चीरो छाती इसकी
कोई बोले गर्दन तोड़
तभी द्रोपदी शीश उठाया
सर्पिणी-सी लहक रही
नयनों का नीर चुक गया
छाती में अग्नि धधक रही
हे धर्मराज ! हे कृष्ण मुरारी !!
हे महाबली ! हे धनुर्धारी !!
हे माद्रीपुत्रो ! सबके रहते
मेरे सीने लगी विषबुझी कटारी
तड़प रही मैं सिसक रही मैं
न मरी मैं न मैं जीती
न मैं चाहूं मुझ-सी कोई
माँ दिखे जीवनविष पीती
छोड़ दो ! इसे छोड़ दो !!
सारे बंधन तोड़ दो
यशोदानन्दन ! हे वासदेव !!
मेरी विनती इसे अमर कर दो
मस्तकमणि को फोड़ दो
फूटे मस्तक भटक रहा अश्वत्थामा
मिला त्रास को त्रास
कथा कहें संसार की
महर्षि वेद व्यास
छाती छेद करा कर बोलती
मन में करती वास
जननी ऐसी बांसुरी
ज्यों आते-जाते श्वास
सावन मास उजियारे दिन
एकम दूजम तीजना
धरती मां अलसा रही
न हल जुते न बीजना
मनमंदिर में प्रेम का दीपक
तिमिर दूर से दूर उलीचना
बिन मात बिलख रहा शिशु
गऊमाता का पसीजना
क्षुधित व्यथित संतान हो
माँ का आँचल भीजना
घोर अंधेरे दिप-दिप दिप-दिप दमक रहा
ममता का पटबीजना
पिता प्रेमप्याला मीठा
मीठी उसकी बात
जननी नदिया बावरी
सबकी बुझावे प्यास
ताप में संताप में
सब सुलग रहे हों गात
किनमिन-किनमिन बरस रही
बन बरखा तेरी-मेरी मात
मन में पीर हो अधीर हो
या हो काली रात
चंदा-तारों के तले माँ
चमके बन परभात !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२