मन …
कभी कभी समझ ही नही आता कि
मन क्या चाहता है,
कभी भीड़ में खुश है
तो कभी तन्हाई पसंद ,
कभी किताबों में खोया,
तो कभी दर्द भरे गीतों में गुम,
कभी करता हैं चीखें जोर जोर से,
और कभी मन है कि जरा सी आहट भी न हो,
कभी मीठा सा झरना,
मन ही मन मुस्कुराता सा,
कभी इतना खिन्न जैसे,
नीम की कड़वाहट लपेटा हुआ सा,
कभी खामोश सर्द रात के सन्नाटों जैसा,
तो कभी जून की गर्मी लिए चकाचौंध सा,
कभी बंद आंखो की सिलवट सा सहज,
तो कभी छन छन बजती पाजेब सा उद्दंडी,
कभी बच्चा सा कोई हठ ले बैठा हो जैसे,
कभी प्रौढ़ जैसा कि इशारे तक समझ जाए….।
ख़ैर…
विमल…✍️