मन मसोस कर।
सह लेता हूं सबकुछ मन मसोस कर ।
उस आदमी का बुढ़ापा सिहर गया था उस दिन
जब उसका आत्मज आंख तरेर कर बोला था
आपने मेरे लिए किया ही क्या है
जन्म देने के सिवा मुझे दिया क्या है?
पीछे उसकी पत्नी भी खड़ी थी
वह भी सास-ससुर दोनों से लडने को अडी थी।
बुढापा चुप था अपने भाग्य से क्षुब्ध था।
तभी अन्दर की आवाज ने बुढ़ा को जगा दिया
ढांढस बढाकर आशा का दीपक जला दिया।
अंतरात्मा की आवाज बुढा को समझायी-बुझायी
अन्दर के डर-भय को हटाकर आत्मबल बढायी।
अभी तो देह-हाथ तुमहारा चल रहा है
अर्थाजन कर पूरे घर को भर रहा है
अभी तू न थका है न हारा है
फिर क्यों समझते हो तू बेचारा है?
क्यों नहीं समझाते हो उस नादान को
चुप करा दो उसके अनुभवहीन बदजुबान को।
तूने क्या नहीं किया जिससे उसका भविष्य संवर जाये
ऊंची -से-ऊंची उड़ान के लिए पंख उसे लग जाए।
अपना पंख कतरकर उसको लगा दिया
अपना दिया बुझाकर उसका दीप जला दिया।
खून-पसीना की कमाई से खिलाया पिलाया
पढा दिखाकर इस काबिल बनाया
अपने भविष्य को गिरवी रख कर
उसको उस मुकाम तक लाया।
अभी तो मंजिल का भी ठीक से पता नहीं
जीवन के उतार-चढ़ाव का मजा चखा नहीं
फिर वह क्यों तुझे नजर से गिरा रहा है
सम्मान-अमृत के स्थान पर अपमान-गरल पिला रहा है?
तुझे ही नहीं वह तो मां की ममता
का भी गला घोंट दिया
सफलता के मग में न जाने
किस-किस को कैसा-कैसा चोट किया।
मां जो नौ महीने कोख में रख अपना खून पिलाती रही
संसार में लाकर अपना दूध पिला-पिला कर
चलने लायक बनाती रही ।
उसकी हर गलती को छुपाने के लिए
अपने शौहर की डांट-डपट खाती रही ।
वैसी मां को अपना सरदर्द बताने लगा
कुछ दिनों की शागिर्दी में
एक अदना को हमदर्द बनाने लगा
भौतिकता की चकाचौंध से जवानी अभिभूत हो गयी
मानवता का सारा मानदंड धू-धूकर राख हो गयी ।
फिर भी तुम मौन हो, समझा दो उसे, तू कौन हो?
सुन अन्तर्मन की आवाज बुढ़ापा बोला-
सोचता हूं जवानी अलमस्त है,नवयौवन में मस्त हैं
जब सही सोच आयेगी
सारी बदसलूकी स्वयं ही सुधर जायेगी
वही तो मेरा एकमात्र सहारा है
बुढ़ापे की डुबती नैया का किनारा है।
यही मानकर मन को समझाता हूं
जिजीविषा को छोड़ नहीं पाता हूं
डर जाता हूं किसी अनिष्ट की बात सोचकर
सह लेता हूं सबकुछ मन मसोस कर।