मन जो कि सूक्ष्म है। वह आसक्ति, द्वेष, इच्छा एवं काम-क्रोध ज
मन जो कि सूक्ष्म है। वह आसक्ति, द्वेष, इच्छा एवं काम-क्रोध जैसी अपनी वृत्तियों में राग रखने से विकसित होता है। विकसित होता है मतलब फलता-फूलता है। मतलब सूक्ष्म से सूक्ष्मतर की ओर नहीं बल्कि सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ने लगता है और एक आकार लेने लगता है। ये सारी वृत्तियाँ उसे आकार देती हैं। जितना ज्यादा मन आकार लेता है वो उतना ज्यादा सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ता चला जाता है। शरीर भी मन का ही एक विकसित रूप है। गाड़ी-घोड़े, घर-पैसा, बालक-बच्चे, ये सब मन का ही स्थूल रूप है। यह पूरा संसार ही मन का विस्तार है। मन जितना ज्यादा स्वयं को सूक्ष्म से स्थूल की ओर ले जाएगा उतना ही ज़्यादा दुःखी रहेगा क्योंकि उतना ही ज़्यादा यह इच्छाओं, वासनाओं और स्वयं को विस्तारित करने की श्रृंखला में फँसेगा।
मन जब सूक्ष्म से सूक्ष्मतम (विशुद्ध) है तब वह आत्मा है। मन जब स्थूल है तब यह संसार या अहंकार या खिचड़ी पका हुआ ‘मैं’ है।