मन की संवेदना
मन की संवेदना छिपाकर जीना सीख गया मैं
हंसना सीख गया मैं गम को पीना सीख गया मैं
इस दुनिया में श्रेष्ठ भावना यूं ही मर जाती है
सपनों की बगिया खिलने से पहले झड़ जाती है
कोई कोई बात शूल सी मुझे चुभा करती है
कोई कोई रात कत्ल की रात हुआ करती है
इन बातों को इन रातों को भूल नहीं पाता हूं
फिर भी ना जाने क्यों अक्सर चुप मैं रह जाता हूं
मैंने अक्षम लोगों को आगे बढ़ते देखा है
मैंने सक्षम लोगों को चुपके रोते देखा है
कितना बुरा लगा है जब भी सपना मेरा टूटा
छोटे-छोटे कौवो ने भी पनघट मेरा लूटा
जो कमियों के क्षीरसिंधु हैं मुझमें कमी गिनाते
खुद को ठीक नहीं कर पाते मुझे राह दिखलाते
ऐसे लोगों को ही अक्सर मैं प्रणाम करता हूं
उनको जिंदा रखता हरदम बस खुद ही मरता हूं
उपदेशों की भाषा देने वाले लोग बहुत हैं
जीवन की परिभाषा देने वाले लोग बहुत हैं
जिन लोगों ने मेरे ऊपर तीक्ष्ण बाण बरसाए
उन लोगों के आगे मैंने हंसकर इस झुकाए
खिले गुलों का मुरझा जाना इक सच्ची घटना है
बार बार ठोकर को खाना कड़वी दुर्घटना है
ऐसी घटनाओं से अक्सर मन मेरा रोया है
जिनको मैंने अपना माना उनको खोया है
मन की संवेदना छिपाकर जीना सीख गया मैं
हंसना सीख गया मैं गम को पीना सीख गया मैं ||
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रीतेश कुमार खरे “सत्य”
बरुआसागर झांसी