मन का कारागार
मन मेरा कारागार प्रभु ,
आत्मा इसकी बंधक है l
मोह पाश का बंधन बांधे ,
कैसे इसको पार करू ?
इच्छाओं की मोटी दीवार ,
उस पर तीन गुणों का फैला जाल l
माया के गहरे दलदल से ,
कैसे खुद को बाहर फेंकू ll
जब गर्भ में हम माँ के रहते हैं ,
तो प्रभु प्रभु चिल्लाते हैं l
बाहर आते ही भौतिक सुख की अग्नि में ,
खुद का भस्म बनाते हैं ll
सुख दुःख की पहरेदारी में ,
मन खुद का शत्रु बन जाता है l
इच्छाओं को पूरा करते करते ,
पूरा जीवन चला जाता है l
न खुद को तुष्ट कर पाते हैं ,
न औरों को तुष्टि दे सकते हैं l
बस इच्छा और सुख के चक्कर में ,
घूम घूम धरती पर आते हैं ll
मिथ्या अहंकार से ग्रसित ये मन ,
कहाँ कहाँ भटकाता है l
कर लेंगे दुनिआ मुट्ठी में ,
इतना भ्रम दे जाता है ll
भ्रम के ऐसे बांधों को प्रभु ,
तोड़ कहाँ मैं पाऊँगी l
मैं मेरा के चक्कर में ,
जीवन व्यर्थ गवाउंगी ll
उथल पुथल का यह जीवन ,
कभी शांत नहीं रह पायेगा l
पर तेरी स्वीकृति हो गयी कृष्णा ,
तो मन का कारागार ध्वस्त हो जायेगा ll