“मधुमास बसंत”
आय गयौ मधुमास पिया, अब आन लगी मोहि याद तुम्हारी।
सखियन के तन भीग रहे, मन जाति नहीं मोहि तन से निकाली।
दिनन के दिन बीत रहे अब, जात नहि मोहि टारें से टारी।
आयौ बसंत बहार लियो पर आवत ना तोहि याद हमारी ।।
लागैं बसंत के प्रीति पिया, मन हमरो प्रीति शीला होई गइलैं।
आमवां-महुआं के बौरन लागे, खेत-सीवान हरा होइ गइलैं।
सरसों सिवान फुलाईन लागे, हमरो मन भ्रमर होइ गइलैं।
बिन सजन मोहि नींद न आवै, रतियां मोरि बैरन हो गईलै।।
होली के रंग चढ़ें इतना, मन होली के रंग छुड़ा नहीं पाएं।
प्रीति की रीति, की रीति की प्रीति, की प्रीति की रीति भुला नहीं पाएं।
चैन गये संग रैन पिया के, रैन से चैन है चुरा नहीं पाएं।
साजन दूर बसें इतना, तन होली के रंग लगा नहीं पाएं।।
आयो बसंत मधुमास लियो, मन फिरहि बगीयन चार हमारी।
फूल खिलत मन हर लेहत, कोयल कुक अनंग विहारी।
अंतस मोहि तान सुनावै, जात नहीं मोहि मन से बिसारी
विरहिन बन मोहि, रोग लगईलै, साजन घर नाहि अइलै हमारी।।