– – मत समझो इतना कमजोर – –
शांत स्तब्ध नीरव वातावरण। सांय सांय करता रात का सन्नाटा। माँ की आँखों में नींद न देख शलभ ने पूछा – “अम्माँ सोई नहीं क्या। ”
” तू सो जा बेटा” … आज नींद नहीं आ रही है। “उसे सुमित्रा जी क्या बतातीं।
शलभ की नौकरी जो कि अनुकम्पा के आधार पर उसके पापा की जगह लगी थी। पहली पोस्टिंग रायगढ़ में हुई थी जो कि एक कस्बा था। वह तो सुबह 10 बजे माँ के हाथ का बनाया हुआ टिफिन लेकर चला जाता था।
जो मकान शलभ ने किराए पर लिया था उसके ओनर अमेठा जी का एक उच्च मध्यमवर्गीय परिवार था। दोनों बच्चे दूर के नगरों में कार्यरत थे। मकान मालिकन मिसेज अमेठा सरकारी नौकरी में थी जबकि मि. अमेठा रिटायर्ड थे। प्रथम भेंट में शलभ और मिसेज अमेठा की उपस्थिति में अमेठा जी के ये शब्द सुमित्रा जी को बड़ी राहत दे गए थे – “आप अपने आप को अकेला मत समझिएगा बहन जी। शलभ के पापा नहीं हैं तो क्या हुआ……हम दोनों के होते आप लोग अकेले नहीं हैं।”
परन्तु यह क्या। कल शलभ और मिसेज अमेठा के आफिस जाने के चंद मिनटों बाद अमेठा जी ने नीचे आकर उनके कमरे का दरवाजा खटखटाया। सुमित्रा जी खिड़की से झाँक कर आश्वस्त हो गई कि चलो कोई अजनबी नहीं अमेठा भाई साहब खुद ही हैं। और उसके बाद………
“भाई साहब आप…… ”
” आप तो अभी कम उम्र और जवान हो, सुन्दर हो। हमें चिन्ता है तुम्हारी। इस वक्त हम दोनों ही होते हैं घर में। समझ गयी न। आ जाना जब चाहो मैं भी आ जाऊंगा। ”
” हमें अपना ही समझो…. ये कभी मत समझना कि शलभ के पापा नहीं हैं….. मैं हूँ न…… एक अट्टाहास……. ”
” आप क्यों आए हैं यहाँ……. ”
” ये आप कैसी बातें कर रहे हैं आज..”
” अजी हमें फिक्र है आपकी। ये बात हम दोनों के बीच ही रहना चाहिए समझीं…. ”
सुमित्रा जी ने उन्हें घूर कर देखा।
यह देख अमेठा जी बिजली की गति से बाहर निकल गये।
सुमित्रा जी उस दिन पति की तस्वीर के सामने इतना रोईं जितना शायद वे उनके जाने वाले दिन भी नहीं रोई होंगी।
“कैसे जियूं आपके बिना। क्यूँ चले गये मुझसे पहले। काश मुझे पहले जाने दिया होता। ”
उस घटना को याद करके सुमित्रा जी के बार बार रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
आज उन्होंने निश्चय कर लिया है कि मिसेज अमेठा को कल उनके पतिदेव की खुराफाती सोच की कहानी अवश्य सुनाएंगी वह भी अमेठा जी की मौजूदगी में। चाहे फिर उन्हें मकान बदलना ही क्यों न पड़े ? एकाएक उनके अंतस में विराजित दुर्गा अपने पूर्ण विकराल रूप में जागृत हो उठी। अब वे निश्चिंत थीं और रीती आंखें नींद से बोझिल हो चलीं। कल की सुबह अबला की नहीं सबला की होगी।
—रंजना माथुर दिनांक 16/09/2017
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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