मत्तगयंद सवैया श्रंगारिक
मत्तगयंद सवैया
211 211 211 211, 211 211 211 22
गंध पराग भरे वह अंग बिखेर सुगंध चली सुकुमारी।
कुन्दन कोमल अंग लिए वह चन्द्र समान करे उजियारी।
नीलम कंज कली अखियाँ प्रिय देख लगी उर तेज कटारी।
भृंग बने हम डोल रहे सुनती न प्रिये कछु बात हमारी।