मजदूरनी
मजदूरी करने के दौरान वह जिस प्रकार ईटों को चुन- चुन कर भव्य इमारत का रूप देती , उसी तरह वह अपने परिवार को भी आकार देती जा रही थी ।
सुन रनियां , ” इन सारी ईटों को ऊपर मंजिल पर पहुँचा देना ” कहते हुए ठेकेदार चला गया । रामू जो रनियाँ का पति था सिर पर ईटों को रखने में मदद कर ईटों को सीमेंट में चुनने में लगता था ।
रनियाँ दूध-मुँही बच्ची को धूप में एक डलियाँ में लिटा कर प्यार भरी नजर देख ईटों को सिर पर रख दूसरी मंजिल पर चढ़ाने में लग जाती हैं । बच्ची भी शांत भाव से सोती रहती है । सर्दी , गर्मी का कोई भास नही था । भगवान जिस स्थिति में रख रहा था , रनियाँ , रामू और बच्ची केतकी मस्त थे ।
बाहरी बाधक भी उसी को सताते है , जो साधन सम्पन्न होता है , सुबह से शाम तक महिला एवं पुरूष सहयोगियों के साथ काम करती , कब दिन बीत जाता भास ही न होता ।
बीच -बीच में पल्लू की ओट कर रनियाँ बच्ची को दूध पिलाती थी , और फिर काम में लग जाती थी , तसले लेकर नीचे से ऊपर सीढ़ियों से चढ़ना फिर उतरना यही क्रम था बीच -बीच में बच्ची को देखना भी कार्य में शामिल था । शाम लोट कर बनाना और खाना यही क्रम था । खाना परोसते हुए रनियाँ बच्ची केतकी के भविष्य की चिन्ता कर अक्सर सपनों में खो जाती , तो रामू कहता , ” रनियाँ का सोचे , कछु नाहीं , बस सोचे कि केतकी बड़ी है जाए , तो स्कूल भेजे ” कह रनियाँ मुस्कुरा देती ।
रात झोपड़ी में सकून के साथ सोना । दुनियां के बोझ से दूर अपनी दुनियाँ में मस्त थे , अमीरों के महल को आकार देने वाली इस मजदूरनी को दो वक्त की रोटी से मतलब था । भूख वह भी पैसे की केवल अमीरों को होती है गगनचुंबी इमारतों से मजदूरों को कोई मतलब नहीं लेकिन सबसे बड़े आर्कीटेक्चर मजदूर ही है ।