मज़दूर
मेरी मेहनत तेरे घर की चावल- रोटी बनती है,
मेरे पाँव के छालों से तेरा घर फूलता-फूलता है,
पीठ हमारी जलती है तो चूल्हा तेरा जलता है,
मेरी थाली की रोटी से पेट तुम्हारा पलता है।
मैं तेरा घर बन जाता हूँ, तुम मुझको गाली देते हो।
मेरे बच्चे क ट म का ज्ञान कहाँ से पाएँगे ?
फूटे बचपन वाले मन में जान कहाँ से लाएँगे ?
टूटे सुर वाले ये बच्चे तान कहाँ से लाएँगे?
कुछ भी कर लें मेरे बच्चे प्रिन्स कभी न होंगे ये,
कपड़ों से क्या होता है!जज़्बात कहाँ से लाएँगे?
मैं बचपन बलि चढ़ाता हूँ, तुम मुझको गाली देते हो !
फटी हुई साड़ी में बीबी आधा ही तन ढँकती है।
तेरे घर की चुनरी तो बस मखमल की ही बनती है।
सब्जी-भाजी लेकर आती बीबी ताने सुनती है।
पता नहीं क्या-क्या धुनती है, कैसे ताने बुनती है।
मैं हूँ खेल विधाता का, किस्मत ही मुझको चुनती है।
मजबूरी में उघड़े तन को भी तुम गाली हो !
मैं तेरा घर बन जाता हूँ, तुम मुझको गाली देते हो।