*”मजदूर की दो जून रोटी”*
“मजदूर की दो जून रोटी”
मेहनतकश मजदूर कठिन परिश्रम करता ,
रोजी रोटी की जुगाड़ में पसीना बहाते मजूरी करता।
अचानक आये ये आपदा से बिखर गया निसहाय खड़ा रहता।
श्रमिक वर्ग मजदूर के बिना रुक गया है भवन निर्माण सृजनहार उसे ढूंढता।
बहुमंजिला इमारतें बनाता नींव खोद कर भारी भरकम पत्थर है तोड़ता।
मेहनतकश मजदूर जगवालों से अपना हिस्सा मांगता ।
वो सेठ , साहूकार, ठेकेदारों से अमीरों से अपना हक मांगते फिरता।
भीषण गर्मी भरी दोपहरी ,ठंडी हवाओं में या बारिश की तूफ़ानों में डटकर मेहनत करता।
पसीने की बूंद गिराकर जी जान से फौलादी सीना वाला बेघर भूखे प्यासे काम करता।
दो जून की रोटी पापी पेट की खातिर जमाने भर का कोई भी काम करने आतुर रहता।
कठिन परिश्रम करते हुए सदा पसीना बहा आज चिंतनीय अवस्था में उदासीन रहता।
श्रम की कीमत मिले या न मिले विपरीत परिस्थितियों में भी अडिग रहता।
रोजी रोटी की तलाश में दर दर भटकते अब एक जगह ही बैठे रहते पलायन करता।
जीने का लक्ष्य बनाकर थोडी सी चीजों में ही संतुष्ट जीवन है जीता।
प्रगति के पथपर तिहाडी मजदूर असंतुलित होकर कर्मनिष्ठ है बनता।
हम सभी के जीवनकाल में खुशियों का रूप दिखला कर विश्वकर्मा बन जाता।
शशिकला व्यास शिल्पी ✍️