मजदूर की करुणा
हे ईश्वर तेरी माया के आगे,
विवश पड़े मजदूर अभागे।
थे रहते जब अपने गाँव,
गुंडा गर्दी के मुख चढते दाँव।
गाँव गाँव धनवानों की रहती गुंडा गर्दी,
मरने वालों पर फिर करे कौन हमदर्दी ।
जीवन का रहा न थोड़ा भी ठिकाना ,
मेहनत मजदूरी का भी नहीं मिलता पूरा दाना ।
रोते-बिलखते बूढ़े बच्चों को देख ,
आया मन में विचार नेक ।
मरने से अच्छा जाना शहर की ओर,
पलायन का फिर लगा होड़ ।
सच है गाँव हो या हो शहर,
वरसाते सब मजबूर मजदूरों पर कहर ।
धनवानों की न बदलती मानसिकता ,
भरे पड़े हैं जग में स्वार्थपूर्ति कर्ता ।
स्वार्थ का न होता कोई मानदंड,
किया जाय जिस शस्त्र से खंड खंड ।
आज भारी पड़ी कोरोना सी बीमारी,
शहर और, दिया उनको दुत्कारी ।
भूखे पेट फिर जाएं कहाँ ,
दर दर की ठोकर खा रहे सम्पूर्ण जहाँ ।
हे ईश्वर! कहो, किस धरती पर जाए,
जिस धरती को अपने जीवन का स्वर्ग बनाएं ।
मोती संग टूट रहे हैं धागे,
विवश पड़े मजदूर अभागे।
उमा झा