मजदूर का स्वाभिमान
पढ़ा लिखा हूं कम, मजदूर हूं बेबस लाचार हूं .
दर्द मेरा कौन जाने, लोगों की नजरों में नाकाम हूँ .
रहने खाने सोने का, सामान सारा मैं बनाऊं .
फिर भी लोगों की नजरों में हूं निकम्मा, न किसी के काम आऊं.
लाखों दर्द लाखों धोखे, हैं दबाये सीने में.
मुझे भी इज्जत बख्शो, मुझे भी स्वाभिमान हैं.
क्योंकि मैं परजीवी नहीं, एक मेहनतकश इंसान हूं.
वक्त की मार पर, जोर किसी का चलता नहीं.
जो आया हैं सो जायेगा, मजदूर हूं पर मजबूर नहीं.