मजदूर का आत्म कथ्य
हमने युगों युगों का इतिहास लिख दिया,
तुम पढ़ नहीं सको तो हमारा है दोष क्या।
हमने बहाया श्वेद मातृ भूमि के लिए ,
हम जिए तो जिंदगी का साज बन जिए ।
बाँध की ऊँचाइयों पर हम चढ़े सदा ,
हर नदी का पुल हमारी पीठ पर सधा।
हमारी सांस धूल से सनी हुई जो है ,
देखते हो ये सड़क बनी हुई जो है ।
ये तार जिनसे दौड़कर प्रकाश हो रहा ,
मेरी भुजा का हर कहीं अहसास हो रहा ।
मुमताज के ताज में हमारा ही नूर है ,
कटवा दिए थे हाथ हर शासन ही क्रूर है।
भोज की सरस्वती लंदन पहुँच गई ,
हमारी तकनीक दूर दूर तक फैल गई ।
इतिहास के झरोखों में यदि मांडव समृद्ध है ,
तो हर पत्थर को तराशता हमारा ही हस्त है ।
खेत की मिट्टी में हमारा ही बीज है ,
ये कौन कह रहा हम गंदे गलीज हैं ।
ऊँचे भवन जो बन रहे हैं उस तरफ हुजूर ,
हमको वहाँ ढूँढिए मिलेंगे हम जरूर ।
हर तरफ हम दीखते पर हैं नहीं मशहूर ,
नींव के नजदीक हैं कहते हमें मजदूर ।
कहते हमें मजदूर , कहते हमें मजदूर ।
‘हितैषी ‘ की कलम से हमें ये पूछना जरूर ,
बुझी बुझी सी जिन्दगी जीने को क्यों मजबूर ?
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प्रबोध मिश्र ‘ हितैषी ‘
बड़वानी (म. प्र . ) 451 551