मंथन
है मृत्यु सरल जीवन दुष्कर
पथ पर फैला है,एक गरल
दे स्वेद को तू इतनी अग्नी,
जल जायें कन्टक जो भी हो
हो जाये जीवन और सरल
हो जाये जीवन और सरल।
भावो का अपने कर मंथन,
कर ले फिर तू आज यह प्रण,
निज को ना कभी तू हीन कहे
प्रतिघात करे ना अन्याय सहे,
स्वाँसों कर स्पंदित अपनी,
हो जायें जीवन फिर अविरल,
हो जाये जीवन फिर अविरल।