मंथन!!
आज जब हमारे गणतंत्र को बहत्तर वर्ष हो रहे हैं,यह उम्र आम इंसान के लिए बाणप्रस्थ से संन्यास की ओर जाने की तैयारी करने का द्योतक है,तब हमारे इस लोक तंत्र में इस तरह के गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ चरितार्थ भी हो रहा है! शायद इसे पाने में हम चूक से गये हैं, और उसका मुख्य कारण है तंत्र का गण पर स्थापित हो जाना,जन प्रतिनिधि भी तंत्र के भरोसे पर शासन सत्ता का संचालन करते हुए यह भूल गए कि,हमारा मुख्य उद्देश्य तो गण की सेवा करना है, किन्तु उसने गण को अपनी प्रजा मानते हुए स्वयं को शासक मान लिया, तथा जिन्हें गण की सेवा के तंत्र के रूप में शामिल किया गया उन्होंने शासकों का प्रतिनिधि समझने की खामख्याली पालते हुए अपने को प्रशासनिक व्यवस्थाओं को संचालित करने के लिए शासकों की ओर से शासन सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले ली, चूंकि आम जन तक इसकी बारिकियों को समझ भी नहीं पाया था, क्योंकि तब सामान्य तह अशिक्षा का वातावरण चारों ओर कायम था, जिससे आम जन ने इसे सहजता से स्वीकार भी कर लिया, और यह व्यवस्था चल पडी तो फिर इसने पीछे मुड़कर नहीं देखा कि यह तो तात्कालिक व कामचलाउ व्यवस्था के रूप में है,इसने स्थाई रूप धारण कर लिया, ऐसे में अब जब लोग अपने अधिकारों को जानने समझने लगे हैं तो फिर अब कोई अपने हाथों से पकड़ को ढीला नहीं छोड़ना चाहते,सब कुछ अपने ही हाथों में समेटे हुए रखना चाहते हैं, और यह व्यवस्था अब नागरिकों को सहजता से स्वीकार नहीं हो रही है, वह गणतंत्र को साकार रूप में देखना चाहता है!
हमारे देश के संविधान में अनेकों संशोधन किए जा चुके हैं, किन्तु आम जन के लिए यह प्रर्याप्त प्रतीत नहीं हुए, जिनसे सत्ता धारियों ने किनारा करते हुए उनके लिए सुविधाएं जुटाने के संशोधन होने लगे हैं जिनके हाथों में आज अर्थतंत्र की कमान है और वह अपने हितों के लिए शासन सत्ता में बैठे हुए लोगों से अपने हक में कानून बनाने या हटाने में समर्थ साबित हो गये हैं, इसका ताजा उदाहरण किसान कानून के तहत लाए गए यह बील हैं जिन्हें कानूनी रूप दे दिया गया है उस स्थिति में जब किसान इसके विरोध में उठ खड़े हो गए थे, फिर भी इन्है जैसे तैसे पास करा कर लागू करने की प्रक्रिया शुरू की जा रही थी, और इसने उस जन को जो अब तक यह समझ रहा था कि वह सरकार को बनाने-हटाने में सक्षम है की मुखालफत करने के लिए सड़कों पर उतर आया, लेकिन जब उसकी मांगों को नजरंदाज किया जाने लगा तब वह हतप्रभ भी था कि कैसे कोई सरकार अपने ही देश के नागरिकों की अवेहलना करते हुए अपने फैसले से पीछे हटने को तैयार नहीं है, इससे आहत किसान ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए आंन्दोलन प्रारंभ कर दिया जो अब दिल्ली दरबार में उपस्थित देने की जद्दोजहद में अपनी आन बान के साथ जूट गया है!
मुझे लगता है कि आज जब देश में विपक्ष दिशा हीन,दुर्बल, और विश्वास के संकट से गुजर रहा है और सरकार संख्या बल के आधार पर जन अपेक्षाओं को अनदेखा कर रही है तब आम जन को असहज स्थिति का सामना करना पड़ता है, वह ना तो सरकार से हठधर्मिता को छोड़ने की उम्मीद कर सकती है और न विपक्ष से मुखर विरोध की अपेक्षा रखती है, तथा स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में पाती है! शायद यही कारण है कि आज देश में लोग दो धाराओं में बंटे हुए नजर आ रहे हैं, एक पक्ष सरकार के साथ खड़ा दिखाई देता है तो दूसरी ओर एक पक्ष विरोध को तरजीह देता हुआ महसूस होता है!
ऐसे में जब अनेकों संशोधन किए जा चुके हैं तो फिर क्यों न कुछ और संशोधन हो जाएं: जैसे चुनाव में प्रथम प्रतिभागी को तो निर्वाचित घोषित किया ही जाता है, साथ में द्वितीय स्थान पर आए हुए प्रतिभागी को घोषित विपक्ष की मान्यता देकर, कमजोर विपक्ष की कमी को पूरा किया जा सकता है, यह प्रतिनिधि सरकार के कार्यों पर नजर रखते हुए जनता के सम्मुख लाने का काम कर सकता है,जीते हुए प्रतिनिधि को,जन सरोकारों से भागने नहीं देगा, उसकी हर कमी को जनसामान्य के सम्मुख लाकर, जनता को जागरूक होने के लिए तैयार रखेगा! और अपनी सक्रियता से भविष्य में जनता का विश्वास प्राप्त करके प्रथम पायदान पर भी पंहुच कर विधाई कार्य करते हुए जन सेवा का कार्य भी करने का अवसर प्राप्त कर सकता है! ऐसे प्रतिनिधि को राज्य सरकार से विधिवत मान्यता प्राप्त रहे और उसके लिए कोई ऐसा उचित मंच तैयार किया जाए जहां वह अपनी बात कह सके, और उसे सुनने समझने के लिए भी एक तंत्र काम करे।
यह व्यवस्था यदि अपनाई जाए तो कोई भी जन प्रतिनिधि निरंकुश तरीके से जनता की उपेक्षा करने का जोखिम मोल नहीं लेगा, और द्वितीय स्थान वाले को भी सक्रिय होकर जनता से जुड़े रहने का अवसर प्रदान करेगा।। देश वासियों को सादर प्रणाम।