‘मंज़र’ इश्क़ में शहीद है
मामूली दर्द-ओ-ग़म में, उनका ख़याल काफ़ी है,
संजीदा मुश्किलों में लेकिन, शराब ही मुफ़ीद है।
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महबूब ने वायदा तो ख़ूब किया, लंबे सफर का,
दिनभर साथ न आए, शाम ढले क्या उम्मीद है।
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इश्क़-मोहब्बत रिश्ते कुर्बत-ओ-लम्स सब ठीक,
मगर एतबार किसी पे न करना, यही ताक़ीद है।
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क्यों बारहा कोसते रहते हो बज़्म-ए-हयात को,
ये दुनिया जैसी भी है, बेमिसाल और फ़रीद है।
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वो आए हैं क़त्ल-ए-‘मंज़र’, ख़ंज़र तराश कर,
कोई बता दे उन्हें, ‘मंज़र’ इश्क़ में शहीद है।
✍️श्रीधर ‘मंज़र’