भ्रूण वियोग
आज कलुषित राग मन में है उमस बन।
और कुछ ना शेष है अब साधना को।
प्रेम का पहला ही अक्षर खो गया।
है नहीं हिम्मत स्वयं से सामना को।
मां जो अपने आत्मा में धारती है।
सुन्न क्यों किलकारियों की आरती है?
खींचती जब बाल नन्हे हाथ से वो।
तब नयन ममता से कन्या तारती है।
दृश्य स्नेहिल मां जो ममता से निहारे।
दिव्य उत्तम राग शिशु ऐं ऐं पुकारे।
कल्पना नासूर बन मन में चुभी है।
है नहीं हिम्मत स्वयं से सामना को।
गर्भ में बिटिया दिवगंत हो गई तब।
कोसती है मां स्वयं के वासना को।
आज कलुषित राग मन में है उमस बन।
और कुछ ना शेष है अब साधना को।
कर्म फल कैसे कहूं इसको भला मैं?
अपने श्रोणीत से दिया पोषण उसे ही।
आधुनिकता ने उसे छीना है मुझसे
आधुनिकता ने किया दोहन उसे ही।
मेरा अंतर्मन उदंडित द्वंद पाला।
भय रहित ना कर सकी सपनों की माला।
लिंग जांचक यंत्र ने अरमान छीना।
और कुछ ना शेष है अब साधना को।
प्रेम का पहला ही अक्षर खो गया।
है नहीं हिम्मत स्वयं से सामना को।
गर्भ में बिटिया दिवगंत हो गई तब।
कोसती है मां स्वयं के वासना को।
©®दीपक झा “रुद्रा”