भ्रम
हताश मैं
विचर रहा था इस
बियाबान में
न कोई मंजिल न
कोई रास्ता था
मेरे लिए इस संसार में।
एक शीतल बयार
बन के तुम
अचानक से आ गयी
अपनी मादक सुगंध
व मोहक अदा और
सुविज्ञता से
मेरे दिलो दिमाग पर
कुछ इस तरह छा गयी
मुझे लगा कि
हां, मेरी मंजिल आ गयी।
अपनी मंजिल पर
बढ़ते कदम
कभी खुशी कभी गम
रूठना मनाने का दौर
पर अंततः मिला नही
मेरी मंजिल को ठौर।
अचानक से एक दिन
मेरा फोन उठना
बंद हो गया
तमाम कोशिशों के बाद
मेरा हर प्रयास
असफल हो गया।
मैंने चाह कर भी
तेरी तलाश नही की
मुझे भय था कि
कहीं तुम हमसे दूर
तो नही हो गयी।
अपने मन को देता
रहा झूठा एक दिलासा
जबकि जानता था
नही तेरे आने की
कोई आशा
पता नही क्यों दिल
का एक कोना लिये था
तुमसे मिलने की प्रत्याशा।
यह भ्रम बना रहे
यही मैं चाहता भी रहा
उसी भ्रम के सहारे
शेष दिन बिताना
चाहता था
डर था कि जिस दिन
तेरे किसी और के
होने का पता चलेगा
मेरा मन कैसे संभालेगा।
शायद इसकी परिणीति
स्वयं को समाप्त
करने पर न पहुँच जाय
इससे तो अच्छा था
कि उसी भ्रम के सहारे
ही जिया जाय।
प्रिय आज मैं यदि
जिंदा हूँ
बेशक एक पंखहीन
परिंदा हूँ
फिर भी निर्मेष
इस जीवन को निर्विवाद
तेरी मेहरबानियां ही
मानता हूँ।
निर्मेष