भ्रम
“कभी नहीं” दो शब्द नहीं हैं,
मन का भ्रम हैं, धोखा हैं।
और कहीं भी रखो स्वयं को,
पर धोखे में मत रखना।
नदी हमेशा नदी रही क्या ? झरना क्या था, नहीं पता ?
करते करते सीख गए क्या, करना क्या था, नहीं पता ?
साथ समय के, मन के अन्दर जो बदला है, देखा तुमने ?
जैसे सतरह, अठरह में थे, क्या वैसे हो, सोचा तुमने ?
सखे धारणाऐं भी अस्थिर,
मन का भ्रम हैं, धोखा हैं,
और कहीं भी रखो स्वयं को,
पर धोखे में मत रखना।
तुम्हें याद है बचपन में तुम तरुणाई को ललचाते थे ?
औरों से कद ऊँचा होते, देख देखकर इतराते थे।
अब तो बरसों बीत चुके हैं, पूरा सबल, सजीला तन है
अब क्यों मन भर गया उमर से, क्यों वापस जाने का मन है ?
इच्छाएँ, इच्छाधारी सी,
मन का भ्रम हैं, धोखा हैं,
और कहीं भी रखो स्वयं को,
पर धोखे में मत रखना।
सोचो सिंधु वासियों ने क्या पोथी युग को सोचा होगा ?
शती पूर्व से बाद शती के क्या- क्या होगा कैसा होगा ?
किसने सोचा होगा जग में प्रज्ञा की प्रभुता आयेगी ?
ये दुनिया “नियोग” से होकर “आई वी एफ” तक जायेगी ?
“स्थिरताएँ” अचल नहीं हैं,
मन का भ्रम हैं, धोखा हैं,
और कहीं भी रखो स्वयं को,
पर धोखे में मत रखना।
© शिवा अवस्थी