भोर का नवगीत / (नवगीत)
रात ने
जगकर रचा है
भोर का
नवगीत सुंदर ।
ढल चुकी
जब मृदुल सँध्या
और कड़ुवे
याम बीते ।
चाँदनी
की छत्रछाया
में किए
आराम बीते ।
नींद ने
भी शत्रुता से
रच दिया
मनमीत सुंदर ।
बिस्तरों
की सिलवटों ने
पीर की जब
भाप छोड़ी ।
गाव-तकिया,
मसनदों ने
एक कड़ुवी
छाप छोड़ी ।
स्वप्न ने
मरकर रची है
जागरण
की रीत सुंदर ।
गीत गाते
श्रमिक निकले
काम का
लेकर सहारा ।
कसमसाते,
चिपचिपाते
दिवस का
बढ़ गया पारा ।
स्वेद ने
बहकर लिखी है
साँझ,श्रम
की जीत सुंदर ।
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी (रहली),सागर
मध्यप्रदेश ।