” भूल रहे हैं आज ठगन को ” !!
हुए मुक्त फिर चले गगन को !!
कैद किया था जिसने हमको ,
उसका मन बदला बदला है !
जी भर पहले खेला हमसे ,
आज उसी का मन मचला है !
खूब फड़फड़ाये फर अपने ,
भूल रहे हैं आज ठगन को !!
सुविधाओं में दम घुटता है ,
हम तो मनमौजी ठहरे हैं !
हँसे तुम्हारी खातिर लेकिन,
अपनी खुशियों पर पहरे हैं !
बंधन मन को बाँध न पायें ,
मिले सवेरा सदा जगन को !!
आतप सहती काया है पर ,
मन भी बालू सा तपता है !
अपनों का बिछोह सहना भी ,
रोज रोज हमको मथता है !
दिन तो सबके ही फिरते हैं ,
सदा जगाये रहें लगन को !!
खुला गगन है , भरें उड़ानें ,
सीमाएं अब टूट गई हैं !
बीता कल बदला अतीत में ,
यादें पीछे छूट गई हैं !
हिम्मत ने बदली है करवट ,
जगा रहे हैं सुप्त अगन को !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )