भूरी
उस दिन ट्रेन के सफर में पंत जी के सामने बैठी युवती यदि उनके मोहल्ले शहर गांव देहात या कस्बे की होती तो निश्चित रूप से उसका नाम भूरी होता क्योंकि उनके यहां जो भी कोई अपेक्षाकृत गोरे रंग का होता था और जो धूप की किरणों में तप कर कुछ तांबे जैसा , गेंहुआ सा रंग और सुनहरी बाल पा लेता था उसे लोग आम बोलचाल की भाषा में भूरी अथवा भूरे के नाम से ही संबोधित करते थे। इस प्रकार से उनकी नज़र में वहां हर चौथे पांचवें महिला या पुरुष का नाम भूरी अथवा भूरे था ।और इस सम्बोधन से पुकारे जाने पर वे अपने को गौरवान्वित एवम विशिष्ट समझते थे । पर उस समय चलती ट्रेन में पन्त जी के सामने जो विदेशी नवयुवती सफर कर रही थी का परिचय अंग्रेजी फिल्मों अथवा उपन्यासों में नायिका के लिए वर्णित ब्लोंड शब्द उस पर चरितार्थ एवम चित्रित होने के कारण पाठकों से उसका परिचय इसी भूरी नाम के सम्बोधन से कराया जा सकता है । शायद वह किसी पर्यटक स्थल से भ्रमण करती हुई आ रही थी जहां किसी पर्यटकों के आकर्षण एवम प्रयोजन हेतु निर्मित व्यवसायिक अलंकृत परिधानों की वीथिका से खरीदी उसने रंग बिरंगी जोधपुरी लहंगा और ओढ़नी जैसी पोशाक पहन रखी थी । अपनी एक अलग पहचान और वेशभूषा के कारण वह कूपे में साथ चल रहे कुछ यात्रियों के आकर्षण का केंद्र भी बनी हो सकती थी । यह एक इत्तेफाक था कि उसकी बर्थ पन्त जी की बर्थ के सामने पड़ती थी और कभी-कभी पन्त जी उत्सुकतावश अपनी जिज्ञासा सुलभ उचटती हुई दृष्टि से उसकी स्वाभाविक गतिविधियों का अवलोकन कर लेते थे । ट्रेन अपनी द्रुतगति से हिचकोले खाती हुई चल रही थी वह सामने की बर्थ पर बैठे शांत चित्त से एक मोटा सा कोई अंग्रेजी उपन्यास पढ़ने में तल्लीन थी और पंत जी चलती ट्रेन के बाहर गुजरते हुए जंगलों और हरेभरे खेतों के दृश्यों के पार क्षितिज पर ढलते सूरज की लालिमा पर अपनी निगाहें टिकाये अपने उलझे विचारों में डूबते उतराते सफर तय कर रहे थे ।
कुछ देर पश्चात ट्रेन की पैंट्री कार से बैरे ने एक निरामिष व्यंजनों से भरी मिश्रित थाली का भोजन उस ब्लॉन्ड को ला कर दे दिया । पंत जी अपना खाना अपने साथ लाद कर चल रहे थे । उन्होंने ध्यान दिया कि जितने अधिक आयतन और वज़न में वे अपना खाना साथ ले कर चल रहे थे उससे कहीं कम मात्रा के कुल समान को अपने साथ लेकर वह ब्लोंड यात्रा कर रही थी ।पन्त जी रेलवे विभाग द्वारा दिये गये नारे ‘ कम समान के साथ ही यात्रा करने का आंनद है ‘ की धज्जियाँ उड़ाते हुए उसके अपवाद के स्वरूप में यात्रा कर रहे थे ।
कुछ देर पश्चात ब्लोंड ने अपनी थाली पर लगे आवरण को हटा कर भोजन ग्रहण करना शुरू किया । उसके खाने के तरीके को देखकर पंत जी बर बस उस पर से अपनी निगाह नहीं हटा पा रहे थे । उन्होंने देखा कि खाते समय पहले उस ब्लॉन्डी ने चम्मच से सिर्फ चावल चावल ही खाए , फिर दाल दाल पीली , फिर एक रसीली सब्जी सब्जी ही खाली, फिर सूखी सूखी सब्जी ही खाली , फिर चम्मच की सहायता से खाली दही का रायता रायता ही पी गई और फिर उसने उसकी थाली में बचे हुए अचार को पूरा का पूरा एक ग्रास बना कर मुंह में रखकर खाने लगी , तत्क्षण उसके चेहरे की भावभंगिमाओं की प्रतिक्रिया देखने लायक हो रही थी । उन्होंने सुना था कि मुस्कुराते समय चेहरे की दो मांसपेशियां काम करती हैं और क्रोध में 43 लेकिन इस समय उसकी तमाम चेहरे की और शारीरिक मांस पेशियां मिल कर उसके चेहरे पर 75 कोणों को आकृति दे रहीं थीं । उस अचार के स्वाद ने उसका चेहरा और हाव् भाव कुछ ऐसे बिगाड़ दिए थे जैसे कभी किसी दुधमुंहे बच्चे के मुंह में थोड़ी सी चटनी चटा दी जाए । खैर किसी तरह उस स्वाद को पानी से सटकर उसने थाली में बची हुई रोटियों को एक साथ लपेट कर उनका एक रोल बना कर अपने एक हाथ की मुट्ठी में पकड़ लिया तथा दूसरे हाथ मे अपना उपन्न्यास पकड़ कर सबसे ऊपर वाली बर्थ पर आराम से लेट गयी और उपन्न्यास पढ़ते हुए बीच बीच में उन सूखी रोटियों के रोल को काट काट कर , चबा चबा कर खाने लगी ।
उसके पश्चात पंत जी ने संकोच के साथ अपना भोजन वाला एयर बैग अपनी बर्थ के नीचे से खींच कर निकाला और उसमें से अपने टिफिन और उसके कटोरदानों को एक-एक कर खोल कर आधी बर्थ पर फैला दिया फिर रोटी के एक टुकड़े पर उन सब में कुछ कुछ अंश ले कर एक ग्रास बना कर खाने लगे फिर बचे हुए व्यंजन को बची हुई दाल में भात के साथ सान कर कौर बना बना कर मौन धारण करते हुए खा गये । फिर पानी पीकर अपनी बर्थ पर पसर गए और हिचकोले खाती ट्रेन में कब आंख लग गई पता नहीं चला । यह महज़ एक इत्तफाक था कि पंत जी और उस ब्लोंड का गंतव्य स्थल इस रेलगाड़ी का आखिरी स्टेशन था जहां अगले दिन सुबह वे दोनों उतर पड़े और शहर की भीड़ में खो गए ।
कहते हैं ऐसे बिछड़े लोग जीवन में दोबारा कभी नहीं मिलते पर इस जनश्रुति को धता बताते हुए अगले दिन पन्त जी को वही ब्लोंड शहर के एक व्यस्ततम चौराहे के किनारे खड़े एक भुने हुए आलू और शकरकंद बेंचने वाले खोमचे के पास खड़ी मिल गयी । उसकी नीली एवं पंत जी की काली भूरी आंखें टकराईं और गत रात्रि की रेल में सह यात्रा की याद में शिष्टाचारवश दोनों ने एक हल्की मुस्कान का आदान प्रदान किया । तबतक वह मोलभाव करके ₹5 में एक भुना हुआ आलू उस खोमचे वाले से खरीदने के लिए सौदा तय कर चुकी थी । जब उस खोमचे वाले ने पत्ते पर आलू रखकर उसमें चटनी मसाले खटाई इत्यादि डालकर चाट बनाकर उसे देना चाहा तो उसने इसके लिए हाथ के इशारे से मना कर दिया और उससे उबला आलू पत्ते पर लेकर सड़क पर चलते चलते खाने लगी ।
अब इसे इत्तेफाक न कहकर विधि की विडंबना ही कहा जाएगा कि तीसरे दिन पंत जी का सामना फिर उसी ब्लोंड से एक आश्रम के प्रांगण में चल रहे लंगर की लाइन से बैठी पंगत के बीच हो गया । उस समय वह अपने 25 – 30 अन्य विदेशी साथियों के साथ पंगत की कतार में उनके सामने वाली कतार में कुछ दूरी पर बैठी थी । लंगर का प्रसाद सबको भक्तिभाव से पत्तलों पर परोसा जा रहा था । विभिन्न प्रकार के व्यंजन आश्रम के कई सेवकों द्वारा चौघड़ियों , रायते दानों , बाल्टियों , परातों , टोकरों आदि में लाला कर थोड़ा-थोड़ा सबके पत्तल पर परोसा जा रहा था । जिस समय पंगत को लगभग सभी व्यंजन परोस दिए और एक जयघोष के साथ प्रसाद ग्रहण करने का इशारा किया गया ठीक उसी समय उस ब्लॉन्डी समेत उसके सभी साथी उठकर खड़े हो गए और पलट कर दौड़ दौड़ कर के वापस उसी आश्रम में स्थित अपने कमरों की ओर जाने लगे । पंत जी और पंगत की कतार में चकित हो कर बैठे रह गए अधिकतर लोग उनकी इस दौड़ का आशय नहीं समझ पा रहे थे । पर अन्य सभी की शंका का निवारण करते हुए कुछ देर बाद वे सभी लोग अपने हाथों में एक हरे रंग के तरल पदार्थ से भरी बोतलें लिए दौड़ते हुए अपनी अपनी जगह पंगत की कतार में अपने पूर्व स्थान पर आकर बैठ गए । उनकी बोतलों में हरे रंग का जैतून का तेल भरा हुआ था तथा पत्तल में परोसे गए सभी व्यंजनों पर वे उस तेल का छिड़काव कर रहे थे । इस प्रकार उन लोगों ने अपने परोसे गये दाल , चावल , सब्ज़ियों , रायते , पूड़ी कचौड़ी इत्यादि पर ऑलिव ऑयल का छिड़काव करने के पश्चात सन्तुष्ट भाव से प्रसाद ग्रहण करना शुरू किया । जैतून के तेल के स्वाद के प्रति उनकी ललक और आचरण देख कर पन्त जी को नीम के पेड़ पर रहने वाले कीट की याद आ गयी जिसे नीम ही मीठी लगती है । जिस प्रकार उनके जैतून के तेल के समतुल्य सरसों के तेल का स्वाद पन्त जी को प्रिय था ।
उनका व्यवहार देख कर पन्त जी को लगा कि हम अपनी व्यवसायिक पांच सितारा होटल की संस्कृति में विदेशी पर्यटकों के हमारे देश मे आने पर उनके चारों ओर उन्हीं के देश परिवेश के जैसा माहौल बनाए रखने का प्रयास करते हैं तथा अपने देश की पाक कला संस्कृति एवं परिवेश का परिचय उनसे कराने में असफल रहते हैं । इसी कमी के चलते शायद वे हमारे यहां का स्वाद वापिस ले कर नहीं जा पाते हों गे ।
अब यह बात अलग है कि जब कभी पन्त जी अपने सामने से गुजरती हुई 15 – 20 भैंसों के झुंड में मटक कर चलती किसी भूरी भैंस की सफेद या नीली आंखे पन्त जी की आखों से टकरा जातीं हैं तो बरबस उन्हें उनकी उस यात्रा की हमसफर ब्लोंड की याद दिला जातीं हैं , जिसे चाह कर भी वे कुछ तो उनके बीच खड़ी भाषा के अंतर और कुछ उनके निहित संस्कार जनित संकोच से निर्मित दीवार को लांघ कर वे अपने शहर की पुरानी सुप्रसिद्ध काशी चाट भण्डार की मिश्रित चाट का रसास्वादन उसे न करा सके ।