भूख …..
भूख …..
न लम्बी है
न छोटी है
ज़िंदगी की ज़रूरत तो महज़
दो वक्त की रोटी है
वक्त की अंगीठी पर
मुफ़लिसी सोती है
कोई तो बताये
भूख
कहाँ नहीं होती है//
ईमान भी बिकता है
इंसान भी बिकता है
पेट की ख़ातिर अंधेरों में
बदन का गुलदान भी बिकता है
बिक जाता है सब कुछ
फिर भी
भूख कहाँ सोती है
कोई तो बताये आख़िर
भूख
कहाँ नहीं होती है//
फुटपाथ तो भूख की
सर्वोत्तम परिभाषा है
जहां
अँधेरा है न उजाला है
न आशा है न निराशा है
बस नख से सिर तक लिखी
पेट की अभिलाषा है
भूख का तमाशा है
पत्थरों के बिछौनों पर
लोरियों की रोटी है
कोई तो बताये आख़िर
भूख
कहाँ नहीं होती है//
भूख
जब आँख में होती है
तो वासना का रूप होती है
जब अधरों पर होती है
प्रेमाभिव्यक्ति का रूप होती है
जब पेट में होती है तो
जीवित रहने की अभिव्यक्ति होती है
भूख
जब उस शक्ति में लीन होने की होती है
तो देह परिधान को त्याग वो भूख
आत्मा की परमात्मा से मिलने की होती है
सच
बड़ी विचित्र है ये भूख
कभी देह के अंदर तो
कभी देह के बाहर होती है
कोई तो बताये आख़िर
भूख
कहाँ नहीं होती है//
सुशील सरना