दुःस्वप्न
पुस्तक मेले में इस बार भी शामिल भेड़ियों की शक्ल में छोटे-मोटे प्रकाशकों की लम्बी-चौड़ी भीड़। खैर मानती बकरे की अम्मा!
नए-पुराने नौसिखिये हर वर्ग के लेखकों की भीड़। जिनमें से कुछ गऊ समान लेखक, दुम हिलाते! कुछ मगरमच्छी लेखक, घड़याली दांतों को छिपाते! कुछ लेखक मासूम परिन्दों की तरह पिंजरे में फड़फड़ाते!
किताबों के ढेर में एक-दूसरे के ऊपर-नीचे दबी अच्छी-बुरी किताबें ही किताबें! चारों तरफ़ किताबों को देखकर हताश-निराश होते पाठकों के झुण्ड!!
अचानक लेखक महोदय नींद से जागे। देखा तो दीवार घड़ी रात के दो बजा रही थी। उन्होंने एक गिलास पानी पिया।
घर के पिछवाड़े बह रहे नाले से रात की ख़ामोशी को भंग करती झींगुरों के “चिररररररर र र र ssssss…. किरररररर र र र sssssss…..” की आवाज़ें आ रहीं थीं।
उन्होंने खिड़की के कपाट बंद किये और निश्चिन्त होकर सो गए।
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