भीख
दुल्हन की विदाई के समय एक भिखारी न जाने कहाँ से कार के समीप जा पंहुचा। कपड़ों के नाम पर चीथड़े झूल रहे थे और दुर्गन्ध आ रही थी उसके शारीर के पके हुए घावों से, जिन पर रह-रहकर मक्खियाँ भिन्न-भिन्ना रही थीं। मक्खियाँ उडाता हुआ वह भिखारी टैक्सी के सामने खड़े हुए दूल्हे के पिता से बोला, “बाबूजी, भगवान दुल्हन और दूल्हे की जोड़ी सलामत रखे, इस ख़ुशी के मौके पर कुछ पैसे दे दो।”
अपने सामने एक गंदे भिखारी को खड़ा देखकर घृणा की लहर दौड़ गई दूल्हे के पिता के चेहरे पर और गुस्से में भिखारी को एक लात जमा दी, फलस्वरूप वह दुबला-पतला भिखारी ज़मीन पर गिर पड़ा।
“पता नहीं सुबह-सवेरे कहाँ से उठकर आ जाते हैं, साले भिखारी कहीं के …” कहते हुए दूल्हे के पिता कार में सवार हो गए।
सडक पर गिरे हुए ही वह भिखारी बड़ी बेबसी से देख रहा था, कार के पीछे खड़े दहेज से भरे ट्रक को!!” जो अब चल पड़ा था कार के पीछे-पीछे ‘घरर … घुनू उ उ …न….’ की आवाज़ करता हुआ।
“वाह रे विधाता, क्या तक़दीर है, इस बड़े भिखारी की! इसे भीख में मिला, दहेज से भरा ट्रक और मुझे मिली इस कमीने की लात … वो भी सुबह-सवेरे!!”
भिखारी ने मन-ही-मन पीड़ा से कराहते हुए कहा।