भिखारी कविता
वस्त्र नही मेरे तन पर अब
भूखा प्यासा घूम रहा हूं
जग भर की धिक्कार झेल कर
विकट संकट से खेल रहा हूं
पीड़ा मेरी जान ना पाए
अपने और पराए भी
मुझ से तो अब दूर हो गए
मानवता के साए भी
संकट का विकराल रूप जब
मुझे डराने आता है
सुख दुख के अंतर्विरोध में
मन पिघल पिघल जाता है
@ओम प्रकाश मीना