भाव विकार
जन्मना , रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट होना – यह शरीर इन छः भावविकारों से युक्त होता है। इस शरीरको ही अपना स्वरूप मान लेना ही अज्ञान है। यह शरीर मायाकृत है अथवा प्रकृतिका रूप है, हमारा स्वरूप नहीं है। भगवान् श्रीकृष्णजी भी कहते हैं –
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।
जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है; उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता।।
इन शरीरकी अवस्थाओं के अनुसार ही स्वभाव भी होता है, यह स्वभाव भी इसी शरीरका ही होता है, हमारा नहीं। हमारे स्वरूपका वर्णन करते हुए भगवान् श्रीकृष्णजी ने कहा है कि –
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।
नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् – दृश्यवर्ग व्याप्त है। (इसीलिये ही उस आत्माको दृष्टा अथवा साक्षी कहा गया है) इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है।।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप, जीवात्माके ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।।
अपने स्वरूपको नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप मानकर शरीरका मोह छोड़कर अपने अपने कर्तव्यकर्मों का पालन करना ही हम सभी का युद्ध करना ही है क्योंकि –
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।
हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीचमें ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना है?।।
जब हमारी बुद्धि अपने स्वरूपका निश्चय कर लेती है अर्थात् जब हम अपने आपको शरीर न मानकर नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप परम आत्मा ही मानने लगते हैं तब यही निश्चय ही सब ओर से परिपूर्ण जलाशयको प्राप्त करना कहा गया है –
सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जानेपर छोटे जलाशयमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्मको तत्त्वसे जाननेवाले ब्राह्मणका समस्त वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रह जाता है।।
भगवान् श्रीकृष्णजीने इसीलिये ही कहा है कि –
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
हे अर्जुन! जिस कालमें यह पुरुष मनमें स्थित सम्पूर्ण कामनाओंको भलीभाँति त्याग देता है और आत्मासे आत्मामें ही संतुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।।
जबतक कोई भी पुरुष अपने सहित सभी को आत्मा नहीं मानता है, तबतक सम्पूर्ण कामनाओंको भलीभाँति त्याग कर पाना असम्भव है और जबतक अपने सहित सभी को आत्मा नहीं मानता है तबतक वह अज्ञानी ही माना जाता है, उसे ज्ञानी कभी भी नहीं कहा जा सकता है।।
जय जय श्री कृष्ण