भावों का कारवाॅं
भावों का कारवां कुछ यूं चलता रहा।
कविता बनके वो हरफों में ढलता रहा।।
लाखों सहके सितम उफ भी नहीं किया।
दिल का दर्द ऑंसुओं में पिघलता रहा।।
कीचड़ उछाली पत्थर भी मारे।
पर चोट खा- खाकर भी संभलता रहा।।
खूब ऑंधियाॅं चली तूफान भी आए ।
दीपक विश्वास का यूं जलता रहा।।
खूब रोपें नफरत के पौधे उन्होंने।
मगर अमर-प्रेम हृदय में यूं पलता रहा।।
खड़े रहे उसी मोड़ पर इंतजार में।
मगर वह निकल गया आगे चलता रहा।।
कभी तो होगी अंधेरी रात की सुबह।
पलकों में ख्वाब एक यूं मचलता रहा।।
सेहरा बांधा वक्त ने उसी के शीश।
यहां वक्त के साथ जो बदलता रहा।।
— प्रतिभा आर्य
अलवर (राजस्थान)