कुछ लोग ज्यादातर गलत समझते हैं
जी हाँ दुनिया का एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है,
खासकर भारत में जहाँ धर्म धार्मिकता के नाम पर लोगों को सोच को सीमित किया गया है, ऐसा इसलिये है हमारी सभ्यता, संस्कृति कथनी करनी में सामंजस्य नहीं है, किसी एक ने अपना मत पेश किया और हमने मान लिया, उस पर प्रैक्टिकल हुआ ही नहीं यानि अनुभवहीनता के बावजूद करते रहे. हमारे रहस्यदर्शी मन,शरीर,आत्मा में मन वा शरीर पर कम तथा आत्मा विषय पर ज्यादा केंद्रित नजर आये. नतीजे ये हुये हम भौतिक रुप से बिछुड़ गये, और आज हम इस कगार पर हैं कि धर्म की स्थापना भी हठ,जोरजबरदस्ती थोंपना चाहते है. वर्तमान में हम आत्मिक रुप से भी कंगाल है.
व्यवहार एवं व्यवसाय का व्यवस्था में बहुत बड़े मूल्य है.
पत्थर ठीकर की शिक्षा देने वाले संत आज
हीरो के ढेर पर बैठे है तथा एक गृहस्थ उनके बहकावे में.
क्यूरीसिटी यानि मुमुक्षा को हम नहीं जान पाये.
जिसके पास अधिक लोग या धन वह उतना ही बड़ा.
अधिक जनसंख्या के कारण यहां.
मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति खातिर.
बछड़ा लगाकर उसे हटाकर दूथ दोहन तक ही नहीं,
उसको मारकर खाना.
भगवान वा देवताओं की खुशी के बलि.
हमारे नीजि स्वार्थों से कोई परहेज़ नहीं.
स्वर्ग की लालसा के लिये कुछ भी.
बहुत आसान है यहां पांच रुपये की धूप,अगरबत्ती से भगवान खुश होते हैं
और सबसे आसान भी.
हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखे आवै.
क्या जरुरत है.
रहस्य दर्शन की.
क्या जरुरत खुद को खोजने कु.
क्या आवश्यकता मानसिक ताकतें जानने की
सबको भगवान मिले विरासत में.
मेरा भारत महान
कथावाचक भगवान नहीं है
न ही शोधकर्ता
एक अभिनय मात्र
एक बाज़ की भांति बढ़ी हुई चोंच तोड़कर
वापिस शिकार के लिए तत्पर रहो.
मैंने पी.एच.डी की है..मेरा बेटा इसे इस्तेमाल कैसे करेगा
उसे भी करनी होगी.
अन्यथा डॉक्टर लिखने का हक नहीं.
जयहिन्द