#भारतीय संस्कृति से गंगा गाय और गायत्री की नालबद्धता
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● प्रयागराज में कुम्भ के अवसर पर गंगा महासभा द्वारा आयोजित ‘साहित्य गंगा’ में मेरी विनम्र प्रस्तुति ! ●
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★ #भारतीय संस्कृति से #गंगा #गाय और #गायत्री की नालबद्धता ★
प्रथम प्रणाम स्वीकार करो
हे धरती के लाल
दूजे वंदन माँ शारदा
मुझ-से मूक हुए वाचाल
चरणन शीश धरा है मेरा
विद्यासागर करो निहाल
गांधार और ब्रह्मदेश के उपरांत पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के नाम से जब माँ भारती की दोनों भुजाएँ काटी जा रही थीं और उसके बेटे अपनों से ही अपनी जान बचाने के लिए इधर से उधर और उधर से इधर भाग रहे थे तभी रेलवे पुलिस में कार्यरत मेरे पिताजी द्वारा मंडी बहावलदीन में नवनिर्मित मकान, जिसमें केवल लकड़ी का कार्य शेष था, वहीं पाकिस्तान में छूट गया।
उन काले दिनों में दुधारू पशु यों ही भटक रहे थे जैसे डोर से कटी पतंग। और, उन्हीं काले दिनों में, कि सुबह की पहली रोटी गाय को देने का नियम छूट न जाए, इस कारण मेरे पिताजी एक गाय मोल चुकाकर लाए थे।
क्योंकि गाय हमारे जीवन का ही नहीं, धर्म और संस्कृति का भी आधार है।
मैंने बालपन से ही प्रतिदिन सुबह-सवेरे अपने पिताजी को ‘मंत्र’ का गायन करते सुना,
“ॐ द्यौ शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति।
पृथ्वी शान्तिरापा: शान्तिरोषधय: शान्ति।
वनस्पत्य: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति।
सर्वं शान्ति:,शान्तिरेव शान्ति,सा मा शान्तिरेधि।।
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:।।
किशोरावस्था तक पहुंचने से पूर्व ही मैं जान चुका था कि उनकी दैनिक पूजा-आराधना का समापन ‘शान्ति पाठ’ से होता है और आरंभ ‘गायत्री मंत्र’ से, कि “हम ईश्वर की महिमा का ध्यान करते हैं, जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, जो पूजनीय है, जो ज्ञान का भंडार है, जो पापों तथा अज्ञान को दूर करने वाला है — वह हमें प्रकाश दिखाए और हमें सत्यपथ पर ले जाए।” संपूर्ण वसुधा को कुटुंब मानने वालों की दिनचर्या का श्रीगणेश ही ‘गायत्री मंत्र’ से होता है। और यही प्रमाण है मनुष्य के सभ्य होने का।
मानव सभ्यता नदियों के किनारे ही पल्लवित, पुष्पित, विकसित हुई। इस प्रकार सभी नदियाँ पूजनीय हैं; और इनमें प्रथम है ‘गंगा’!
गंगा तट पर ही हरिद्वार व हरद्वार दोनों एकसाथ विराजमान हैं। उमापति काशीनाथ हुए तो गंगा के सामीप्य का लोभ भी रहा होगा। ज्ञात इतिहास में सर्वाधिक समय तक भारत की राजधानी होने का सुख पटना को इसलिए मिला कि गंगा के सान्निध्य में बसा है वो नगर।
गंगा की जीवनदायिनी यात्रा के उस छोर के महत्व का बखान करती एक उक्ति यह भी है कि सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार।
जहाँ जिससे मानवजीवन सहज, सरल, सुगम हो गया वो-वो तीर्थ हो गया। और तीर्थों में तीर्थ प्रयागराज गंगा की जीवनदायिनी धारा के कारण ही तीर्थराज हुए।
मंदिर के गर्भगृह से गाभा और फिर काबा हुए उस मंदिर भवन में तीन सौ उनसठ देवप्रतिमाओं को हटाकर जिस शिवलिंग को पूजा जाता है वहाँ गंगापुत्रों का प्रवेश इसी भय से प्रतिबंधित है कि कहीं गंगा के अभिषेक से शिव जाग न जाएं। यह गंगा का प्रताप है।
वितस्ता अर्थात जेहलम के किनारे मुस्लिम-बाहुल्य गाँव था मेरा। आज से लगभग नब्बे वर्ष पूर्व मेरे दादा जी को किसी दुकान पर चाय पीने के बाद पता चला कि दुकानदार मुस्लिम है। वे वहीं से लगभग छह सौ किलोमीटर की निर्जल-निराहार यात्रा करते हुए हरिद्वार पहुंचे; यह गंगा का महात्म्य है।
आज से लगभग पैंतालीस वर्ष पूर्व लखनऊ जनपद के एक यदुवंशी कुमार, काशी के मुस्लिम युवक और मैंने छ: महीने तक एक थाली में भोजन किया है। वह मुस्लिम युवक गीता के श्लोकों का सुरीला गायन करने के साथ-साथ उनका अर्थ और भावार्थ भी किया करता था। मेरी जिज्ञासा को उसने यों शांत किया, “कुछ पीढ़ी पूर्व किन्हीं बाध्यताओं के चलते मेरे पुरखों ने मुस्लिम मत अपना लिया। परंतु, हमारे पूर्वज, सभ्यता व संस्कृति तो आज भी गीता, गाय और गंगा ही हैं।” यह गंगा की महिमा है।
मेरी अभिलाषा है कि मैं और मेरी जीवनसंगिनी एक ही कलश में बैठकर गंगा में अंतिम स्नान करें। यह गंगा की स्तुति है।
और, महामनीषियों की चौपाल के इस मंच पर मैं आज उपस्थित हूँ, यह गंगा की कृपा है।
गंगा हमारे जीवन में यों रची-बसी है कि जब किसी विशेष अवसर पर माँ गंगा की गोद तक कोई भारतवंशी न पहुंच पाए तो अपने घर में ही स्नान करते हुए पुकारता है, “हर-हर गंगे!” यह गंगा की महानता है।
मैंने अपनी बात कुछ घटनाओं के माध्यम से रखी है। यह घटनाएँ मेरे परिवार में घटित हुईं। और मेरा परिवार ‘लाम्बा’ वंश-गोत्र तक सीमित नहीं है। ‘पंचनद’ की सीमाओं से भी आगे इसका विस्तार हिमालय से सिंधु तक है।
यहाँ उपस्थित अपने ही परिवारीजनों-कुटुंबजनों को सादर-सस्नेह प्रणाम!
जय हिंद !
जय हिंदी ! !
जय हिंदू ! ! !
जय जय जय हिंदुस्थान ! ! !
७-२-२०१९
#-वेदप्रकाश लाम्बा
२२१, रामपुरा, यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२ — ७०२७२-१७३१२