भारतीय इतिहास का दर्शनशास्त्र अजेय भारत (Philosophy of Indian History Invincible India)
प्रसिद्ध विचारक, दार्शनिक, भोगी व रहस्यदर्शी ओशो रजनीश ने मैडम ब्लावहस्की (थियोसोफिकल सोसायटी) के संबंध में अपने कई प्रवचनों में काफी कहा है । इन्होंने उनको महान रहस्यदर्शी, हिमालय के योगियों को निर्देश प्राप्त करने वाली तथा भारतीय योग जगत को बहुमूल्य योगदान देने वाली बतलाया है। यह इतनी प्रशंसा तो आज की ही बात है लेकिन स्वयं उनके समय में भारतीय धर्म, दर्शनशास्त्र, योग, राष्ट्रवाद व स्वदेशी के पटल के महानायक महर्षि दयानन्द उनके समय में जीवित थे । महर्षि दयानन्द से इन थियोसोफिकल सोसायटी वालों ने छल-कपटपूर्ण व्यवहार करके किस तरह अपने स्वयं को प्रचारित करके विश्वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने का कुप्रयास किया था- इस षड्यन्त्र को महर्षि दयानन्द ने स्वयं बतलाया है। महर्षि जी उनके छल-कपट को भांप गए तथा उनसे कोई भी सम्पक्र आदि रखना समाप्त कर दिया। इन थियोसोफिकल सोसायटी वालों ने अपनी इस संस्था को चाहा था कि जिससे महर्षि दयानन्द के नाम का प्रयोग करके वे अपने आपको विश्व आध्यात्मिक जगत् में प्रसिद्ध कर सकें। सम्मोहन का प्रयोग करके भ्रम पैदा कर देना तथा सामान्यजन को उस भ्रम में उलझाकर चेले-चपाटे बनाना इनका एक अन्य उद्देश्य था। इनके निवेदन पर जब एक बार महर्षि दयानन्द जी इनसे मिलने गए तो भवन के भीतर प्रवेश करते समय एकाएक पुष्पवर्षा होने लगी । महर्षि जी इनकी कपट लीला को समझ गए तथा इनके भ्रम को दूर करने हेतु आपने भी सम्मोहन से वहां रखे दीपक को प्रज्ज्वलित कर दिया। यहीं से महर्षि दयानन्द का इनसे मोह भंग हुआ था ।
इन्हीं मैडम ब्लावट्स्की ने पाश्चात्य षड्यन्त्रकारी उपनिवेषवादियों के कपटपूर्ण संकेतों पर एक संस्था ‘थियोसोफिकल सोसायटी’ बनाई थी ताकि उससे से यह दिखलाया जा सके कि यह सोसायटी व इसके लोग भारतीय सनातन आर्य वैदिक हिन्दू सभ्यता, संस्कृति, धर्म, साधना व योग हेतु कार्य कर रहे हैं। लेकिन वास्तव में यह संस्था भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धम्र, साधना, योग, दर्शनशास्त्र, विज्ञान, चिकित्सा व जीवनमूल्यों को पाश्चात्य सभ्यता से प्रेरित व प्रभावित सिद्ध करने हेतु निर्मित की गई थी। यह कार्य भी हो जाए, स्वयं को विश्वगुरु के रूप में स्थापित किया जा सके तथा इससे अरबों रूपये की कमाई भी की जा सके-ये उद्देश्य थे इन आपार से कुछ तथा अन्दर से कुछ थियोसोफिकल सोसायटी के। यूरोप के साम्राज्य को पूरी दुनिया में सुदृढ़ करने हेतु अनेक सिद्धान्त व कहानियाँ पाश्चात्य विद्वानों ने कपोलकल्पित क । इन सिद्धान्तों व कपोल कल्पनाओं को मूर्त रूप देने हेतु एक मोहरा यह संस्था व इसके लोग भी थ । भारतीय उपमहाद्वीप में अलगाववाद के बीच बोने तथा इनमें हीनता की ग्रंथि के बीज बोने हेतु पाश्चात्य उपनिवेषवादियों ने जिन अनेक कपोलकल्पनाओं को जन्म दिया उनमें से एक थी ‘लेम्यूरिया थ्योरी’। इसके अन्तर्गत इन्होंने यह प्रचारित करने का प्रयास किया कि मैडागास्कर आदि द्वीपों के माध्यम से यूरोप का प्रभाव श्रीलंका में आया। यह करीब हो करोड़ वर्ष पूर्व की घटना है। यही प्रभाव फिर भारत के दक्षिण में भी प्रवेश कर गया। तमिल-सिंहली विवाद की जड़ में यही तो थी। षड्यन्त्र करके दंगे-फसाद करवाना, नरसंहार करना व इसके माध्यम से यहां अपनी लूट के कुकृत्य को शुरू कर देना-यही यूरोप की चाल पिछली पांच सदियों से चल रही है। इसी षड्यन्त्र, लूटनीति व शोषण वृत्ति का शिकार हमारे कांग्रेसी, साम्यवादी व सेक्यूलरवादी हैं। ये सब उनके मानस-पुत्र हैं। निगल जाना चाहते है। ये भारत व भारतीयता को ।
यूरोप वालों का एक ही लक्ष्य पिछले पांच सौ वर्षों से रहा है कि यह सिद्ध किया जा सके कि केवल यूरोप ही सभ्य है। बाकी दुनिया गंवार, उज्जड़, अपाहित, जंगली व पशुवत है। यूरोप ने ही सारी धरा को शिक्षित, विकसित, सभ्य, सुसंस्कृत व वैज्ञानिक बनाया है। इसे करने हेतु यूरोप के शासकों, विचारकों, दार्शनिकों, इतिहासकारों, वैज्ञानिक, व्यापारियों व हमलावरों ने इतनी घटिया व अवैज्ञानिक कपोलकल्पनाओं का निर्माण व प्रचार किया कि आज तक इस धरा के बनने के बाद सब देश मिलकर भी ऐसा नहीं कर पाए होंगे । भारतवर्ष इनके षड्यन्त्रों का सर्वाधिक रूप से प्रभावित राष्ट्र रहा है क्योंकि यह राष्ट्र व इसकी सभ्यता तथा संस्कृति सदैव से सर्वाधिक वैज्ञानिक, प्रयोगधर्मी व पुरातन रही है। इसको असभ्य, गंवार, जंगली व देहाती सिद्ध किए बिना ये अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकते थे ।
हेमेटिक-सेमेटिक व आर्य-अनार्य के विवाद को फैलाकर अपना उल्लू सिद्ध करना यूरोपियन लोगों ने अतीत में खूब किया है तथा इसे वे अब भी कर रहे हैं । हमारे यहां यह आरक्षण की महामारी भी इसी कुत्सित सोच की देन है। ऊपर से देखने पर यह लगता है तथा सब मानते भी हैं कि इन मैडम ब्लावट्रकी का बौद्ध-मत से गहरा नाता था। लेकिन श्रीलंका में बौद्धमत को कुचलने में इन्होंने अपनी भूमिका को बखूबी निभाया था। यूरोप की कपोल कल्पना आर्य-अनार्य को विस्तार देने, दक्षिण भारत पर लेक्यूरिया संस्कृति का प्रभाव होने आदि का दक्षिण के बौद्धमतानुयायियों ने विरोध किया था। बौद्धों के इस विरोध को कुचलने को हथियार अंग्रेजों ने मैडम ब्लावट्स्की को बनाया था। पहले व बाद में अंग्रेज, साम्यवादी व हमारे कांग्रेसियों ने इसी विवाद को आर्य-द्रविड़ विवाद के रूप में खूब प्रचारित किया तथा अब भी कर रहे हैं। दक्षिण भारत में कार्यरत राजनैतिक पार्टियाँ आज भी इस मुद्दे को उछालती रहती हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी का विरोध भी इसी की एक विष बेल है। जहां भी सम्भव हुआ वहीं यूरोप वालों ने अलगाव, उग्रवाद, भेदभव, ऊंच-नीच, जाति-पाति, वर्गभेद को बढ़ावा दिया है ताकि ‘फूट डालो व राज करो। की अपनी कपटनीति में ये सफल हो सकें । भारत उनकी कपटनीति का सर्वाधिक प्रभावित होने वाला, सर्वाधिक विनाश लीला भोगने वाला लेकिन सर्वाधिक संघर्षशील डटे रहने वाला राष्ट्र है। सभी राष्ट्र झुक गए लेकिन पूरी तरह कभी नहीं झुका तथा अपनी मूल संस्कृति, सभ्यता, जीवनशैली, जीवनदर्शन, जीवनमूल्यों, दर्शनशास्त्र, चिकित्सा आदि को बचाए हुए है। आज ईसाई देश चर्च संगठनों का दुष्प्रयोग कर रहे हैं तो पूर्व में उन्होंने इस कार्य हेतु वायसरायों के साथ-साथ मेक्समूलर, ग्रिफिथ, विल्सन, रौथ, मैक्डोनाल्ड, मैडम ब्लावट्स्की आदि का भरपूर प्रयोग किया था। हमारे यहां के मूर्ख विद्वान् जिनकी सोच यूरोपीय सोच व साम्यवादी-सेक्यूलरी सोच से आगे जा ही नहीं सकती वह इन मैडम ब्लावट्रकी आदि को यहां के शिक्षा पाठ्यक्रमों में भारत के स्वाधीनता आंदोलन की अग्रणी योद्धा बतलाती है। सत्यानाश हो ऐसी गली-सड़ी सोच का। इन्हीं षड्यंत्र कारिणी मैडम ब्लावट्रकी को ओशो रजनीश जैसे भारतीय योग साधना, अध्यात्म, दर्शनशास्त्र, रहस्यवाद के उच्चकोटि के भाष्यकार एक अग्रणी योगिनी बतलाते हैं तथा भारतीय योग-साधना की उद्धारिका के रूप में उनको उच्चारित करते हैं। ओशो की इस शैली के फिर उनके शिष्य उल्टे-सीधे अर्थ लगाकर कुतर्क करते हैं।
प्रसिद्ध समकालीन दार्शनिक व रहस्यदर्शी जिद्दू कृष्णमूर्ति का भी मैडम ब्लावट्रकी की संस्था ने खूब दुरुपयोग करने का प्रयास किया थ। हालांकि जिद्दू कृष्णमूर्ति ने इस षड्यन्त्र को सफल नहीं होने दिया तथा अपने आपको उस संस्था से अलग करके ‘कृष्णमूर्ति फाऊंडेशन’ की स्थापना कर ली थी। पहले इन मैडम ब्लावट्रकी की थियोसोफिकल सोसायटी ने अपने कुत्सित इरादों को पूरा करने हेतु महर्षि दयानन्द को साखन बनाने का षड्यन्त्र रचा लेकिन इनकी एक न चली। बाद में जिद्दू कृष्णमूर्ति को इस हेतु तैयार किया गया लेकिन यहां भी वे सफल न हो सके तथा अध्यात्म की सनातन भारतीय ऊर्जा ने जिद्दू कृष्णमूर्ति को उनसे अलग कर दिया । पिछले पांच सौ वर्षों से पश्चिमी लोग अपने को सर्वश्रेष्ठ, शासक व प्राचीन तथा बाकी संसार उज्जड़ व गंवार सिद्ध करने में लगे हुए हैं। इस षड्यन्त्र का समाना पूरी ताकत व राष्ट्रभक्ति से डटकर चन्द्रगुप्त मौर्य, चाणकय, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, हर्षवर्धन, शिवाजी, महाराणा प्रताप, राणा सांगा, गोविन्द सिंह, रणजीत सिंह, महर्षि दयानन्द, सावरकर, अरविन्द, पी॰ एन॰ ओक, सीताराम गोयल, रामस्वरूप व वैंकट चलैया की तरह किया जाना चाहिए। भारत अजेय है। विभाजन, षड्यन्त्र, भेदभाव, पूर्वाग्रह, नरसंहार, लूट, शोषणादि के आधार पर स्वयं को स्थापित करना तथा अन्यों को दबाकर गुलामों की तरह रखना ईसाईयत व इस्लाम की पहचान है। इस सबका सामना पहले भी भारत ने ही किया है, अब भी भारत ही कर रहा है तथा भविष्य में भी भारत ही करेगा।
-आचार्य शीलक
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)