भविष्य की परिकल्पना
दलित बस्ती की परबतिया की तीन बेटियाँ हैं। वैसे परबतिया को सब कुर्सेला वाली ही कहते हैं। उसका घर वाला मने कि उसका पति है बेचन ऋषि। अब गाँव-घर में कोई बेचन को बेचन कह दे, वो भी मुसहर को… ऐसा तो होगा नहीं। मुसहर है उसका नाम शुद्ध रूप से लेने का सीधा मतलब है अपना मान कम करना… ऐसा ही कहते हैं लोग। तो बेचना और परबतिया की तीन बेटियाँ हैं- लीलम(नीलम), पूलम(पूनम) और फुद्दी।
पिछले दो साल से परबतिया तीनों बेटियों के साथ अकेली किसी तरह झुके हुए एक कमरे वाले टिन के घर में रहती आ रही है। ये और बात है कि टिन में जगह-जगह छेद हो गया है जिससे बरसात में दर-दर पानी चूता है और ठंड के दिनों में ओस। उसे ढंग से खाने-पहनने को भी नहीं मिलता तो घर की मरम्मती तो दूर की बात है। पेट का भरना जरूरी है। घर और देह चमका कर वह न तो भूख को तांडव करने दे सकती है और न ही लोगों के मुँह में फकरा, ‘पेट में खर नय सींग में तेल’।
लेकिन एक तरफ़ ई बेचना जो है बेचना!
उसका कुछ अता-पता ही नहीं है। हुआ यूँ कि दो साल पहले पूस महीने में जब फुद्दी का जन्म हुआ था, तभी वह अगले ही महीने यानी माघ में पंजाब जाने के बहाने घर से निकल गया। और निकला भी ऐसा कि चिट्ठी न पत्री, न फ़ोन, न कोई खोज-खबर। चलो! ये सब नहीं तो कम से कम पैसा तो भेज सकता है न ? नहीं… उसे क्या पड़ी है ? बाल-बच्चा, बीबी खाए या कि भूखे मरे…।
‘किसी की ठेकेदारी ले रखी है क्या उसने ? जाने परबतिया… पैदा तो उसी ने किया है ना।’ शायद यही सोचकर बेचना फिरार है।
…तो बेचारी परबतिया खींच रही है गाड़ी किसी तरह। आखिर माँ है वह, कैसे छोड़ सकती है बच्चों को ? अपना पेट काटकर भी खिलाती है तीनों को।
खेतों में काम मिलता है तो कर लेती है, कुछ पैसे मिल जाते हैं। दो-चार घर चूल्हा-चौका करने भी चली जाती है इस आस में कि बचा खुचा खाना मिल जाएगा। लीलम और पूलम का नाम लिखा दी है, बस्ती के सरकारी स्कूल में तो कभी-कभार चावल मिल जाता है। कुछ दिन वही अरवा चावल खूब टपकता है डेगची में। फिर तो वही हाल…। आधार कार्ड भी तो नहीं बना है तीनों का तो पोशाक राशि, छात्रवृत्ति एवं अन्य प्रोत्साहन राशि भी नहीं मिल पाती है उसे। मास्टर साब बार-बार कहते हैं बनवाने के लिए और वह भी चाहती है कि बन जाए। लेकिन वो जो सुमितवा है न, जो यही सब काम करता है, आधार कार्ड…राशन कार्ड… ये कार्ड, वो कार्ड…न जाने क्या-क्या, उसका खुशामद कर-कर के थक गई है परबतिया। शायद पैसे ऐंठना चाहता है।
वह सोचती है कभी-कभी, ‘आज लीलम बाप रहते तो ई सब काम झट से करा लेते।’ फिर अगले ही क्षण वह खूब गरियाती है बेचना को।
सुनने में आया है कि बेचना पंजाब नहीं गया है। पंजाब के बहाने कचहरी बलुआ में रह रहा है। दूसरा ब्याह कर लिया है उसने। एक बेटा भी है दूसरी कनिया से। अपने टोला का बदरी बता रहा था। उसका साढ़ू है कचहरी बलुआ में, उसी से पता चला और फिर बात एक कान, दू कान… धीरे-धीरे पूरे बस्ती में फैल गई।
परबतिया का तो हिया हरण हो गया। एक बार वह बेचना के पास गई भी थी कि किसी तरह हाथ-गोर पकड़ कर मना लाएँगें। लेकिन बेचना तो जैसे काठ हो गया था। टस से मस न हुआ। एक लाइन में कह दिया, नय तो नय। नयकी कनिया भी परबतिया को लताड़ कर भगा दी। हार मान कर आ गई वह।
सब किस्मत पर छोड़ दिया।
गरीब का बच्चा पेट का जला होता है लेकिन बुद्धि का पका। छोटकी बेटी फुद्दी तो अभी छोटी है लेकिन बड़की और मंझली बड़ी फुर्ती बाज। टुप-टुप घर-आँगन, चौका-बरतन सब कर लेती है। जरना-काठी भी चुन लाती है। कबड्डी, कित-कित, कनिया-पुतरा खेलने-खाने की उम्र में काम करती है। खेलती भी है तो काम सीखने के लिए। आज भी तो देखे कदम गाछ के नीचे मकई के ठठेरा को बत्ती की तरह चीर-चीर कर टट्टी गूँथ रही थी। छप्पर बना रही थी। खूंटे गाड़ कर घर खड़ा कर रही थी।
पूछने पर पूलम लजाती हुई बोली, “टाट-फड़क बना कर खेल रहे हैं।”
“ई कोनो खेल हुआ ?”
“हुआ नय तब। अभी छोटका-छोटका घर बना कर खेलते हैं। बाढ़ेंगें तो घर का उजड़ा हुआ टट्टी और छप्पर भी ठीक कर लेंगे। घर उजड़ गया है, पानी भी चूता है। कुत्ता भी घुस जाता है घर में। पप्पा नहीं है तो कौन ठीक करेगा।” लीलम ने बताया।
मैं नि:शब्द हो गई।
स्वरचित एवं मौलिक
-रानी सिंह