भरी सभा में मन मेरा एकाकी है
हृदय-कोष्ठ में सूनेपन की झाँकी है।
भरी सभा में मन मेरा एकाकी है।।
लक्ष्य -मात्र था प्रेम तुम्हारा पाने का,
तुमको ही अधिकार दिया इठलाने का,
कानों में रस मधुर भरा उस गाने का,
तुमने वचन दिया जो वापस आने का,
यद्यपि हृदय जानता है ना आओगी,
फिर भी अपलक राह तुम्हारी ताकी है।।
भाव जगे हैं घावों की अकुलाहट के,
घाव हुए प्रेमी मीठी कड़वाहट के,
दबे पाँव से बिना किसी भी आहट के,
स्मृतियां आ जातीं बिना रुकावट के,
छेड़ा करतीं कोमल हिय के तारों को,
स्मृतियों की यह कैसी बेवाकी है।।
बर्षा में भीगे अम्बर के छातों से,
सर्दी में गुनगुनी धूप की बातों से,
मधु -ऋतुओं में झरते नैन प्रपातों से,
एकाकी – जीवन के झंझावातों से,
समय मिले तो अपनी धरोहर ले जाना,
मनस-पटल पर छाप तुम्हारी बाँकी है।।
निकट तुम्हारे खुद से दूरी लगती है,
मंजिल पर यात्रा अधूरी लगती है,
तृष्णा यह अत्यंत जरूरी लगती है,
ज्यों मृग को उसकी कस्तूरी लगती है,
ढूंढ रही है स्वयं स्वयं की आकृति को
धूल दृष्टि ने दर्पण दर्पण फाँकी है।।
संजय नारायण