भरत कुल5
भाग 5
डॉक्टर लखनलाल सौम्य व्यक्तित्व के स्वामी थे। उनका व्यक्तित्व तेजस्वी था। उनकी मधुर वाणी से रोगियों की आधी पीड़ा ठीक हो जाती। उनकी क्लीनिक बाजार में हनुमान मंदिर के समीप थी। दिनभर रोगियों का तांता लगा रहता। वे सभी से प्यार से व्यवहार करते तथा परिवार के मुखिया का हाल-चाल पूछना ना भूलते।
रोगी- डॉक्टर साहब बुखार बहुत तेज है सिर में दर्द है।
डॉक्टर साहब नब्ज पकड़ कर सारे शरीर का हाल जान लेते। कभी-कभार उन्होंने जांच का सहारा लिया ,अन्यथा सभी का लक्षणों पर आधारित सटीक उपचार करते।
रोगी ठीक होते तो कहते, डॉक्टर साहब आप भगवान हैं। आप अपने हाथ से भस्म भी दे दें, तो रोगी ठीक हो जाता है ।इतना अधिक विश्वास रोगी डॉक्टर लखनलाल पर करते थे। रोगी जब प्रकार से उपचार करके थक जाते तब उन्हें लखनलाल का नाम सुझाया जाता। वे वहां जाते अपना विश्वास प्रकट करते और उपचार से ठीक होकर धन्यवाद ज्ञापित करते।
लखनलाल अपनी उपलब्धि पर खुश होते। वे अन्य चिकित्सकों की तरह नहीं थे कि रोगी को तीन चार बैठक के बाद ठीक करें ।उनका विश्वास था कि रोगी को राहत तुरंत मिलनी चाहिए। इसीलिए उन्होंने चिकित्सक होने की शपथ ली है।
वे अपने कर्तव्य का पालन निष्ठा से करते। उनके चार पुत्र थे। सभी आज्ञाकारी ,सुशील व विनम्र थे। उन्हें किसी प्रकार का व्यसन नहीं था ।कहते हैं पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं। इन होनहार बच्चों का भविष्य अत्यंत उज्ज्वल था। डॉक्टर साहब को अपने बच्चों पर गर्व था। चारों बच्चे कक्षा में प्रथम आते। सभी शिक्षक डॉक्टर साहब की विनम्रता व प्रतिभा के कायल थे। वे डॉक्टर साहब के सभी बच्चों का हृदय से सत्कार करते। उनकी प्रशंसा करते।
डॉक्टर साहब की पत्नी प्रज्ञा अत्यंत कुशल गृहणी व शिक्षित महिला थी। उसने अपने बच्चों को प्रारंभ से ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सीख दी। जब बच्चों की मासूमियत भरी तोतली बोली, किलकारियां घर में गूँजती तो धन कुबेर भी उनके सुख पर शर्मशार जाते। प्रज्ञा ने बच्चों को अनुशासन, सत्य बोलना ,मृदु वाचन की शिक्षा हमेंशा दी। यह गुण बच्चों को विश्वसनीय ,संयमी और सहनशील बनाते हैं ,तथा सुचरित्र का निर्माण करते हैं।
विद्यार्थी जीवन की यह बड़ी उपलब्धियां मानी जाती है। ये सभी सभी बच्चे बड़े होकर चिकित्सक, अभियंता ,अधिवक्ता ,व बिजनेस मैनेजर बने ।डॉक्टर साहब अब प्रौढ़ हो चुके थे।उनका शरीर पहले की तरह फुर्तीला नहीं रहा ,वेअब कुछ दिन आराम करने की इच्छा से शंकरगढ़ अपने अग्रज भ्राता सेठ जी के पास चले आए।
अपने बड़े सुपुत्र को चिकित्सालय का कार्य सौंप कर वे निश्चिंत होकर सेठ भरत लाल के पास शंकरगढ़ आ गये। अपने अनुज भ्राता का सानिध्य पाकर सेठ जी फूले नहीं समा रहे थे।
सेठ जी गांव का हाल जानने के लिए उत्सुक थे।
सेठ जी ने कहा -लखन भैया गांव के क्या हाल-चाल हैं। प्रधानी कौन जीता।
डाक्टर साहब- भैया ,गांव में सब हाल -चाल ठीक है। प्रधान चाचा राम अवतार हुए हैं ।सब मजे में हैं।
सेठ जी ने कहा कई बीघा खेत जोते हो।
डॉक्टर साहब ने निश्चिंत होकर कहा- भैया पचास बीघा सरसों और पचास बीघा मटर बोयी गई है। बटाईदार खेत की रखवाली कर रहे हैं। यह अच्छा है, कि फसल अच्छी हुई है। सबकुछ काटकर अच्छे मुनाफे की उम्मीद है।
सेठ जी- वाह भाई वाह ,गांव की शुध्द हवा ,ठंडा जल, हरे भरे खेत सोंधी- सोंधी माटी की खुशबू सब मुझे बहुत स्मरण आते हैं ।
डॉक्टर साहब- भैया आपके क्या हाल है ।व्यापार में मुनाफा कैसा है।
डॉक्टर साहब ने जैसे दुखती रग पर हाथ धर दिया ।
सेठ जी बोले – व्यापार में मुनाफा अच्छा है। बीस- बाइस ट्रकें दिन -रात सड़कों पर दौड़ती है। पत्थरों की खाने हैं, पर जीवन में सुकून नहीं है। तुम्हारा भतीजा कौशल बहुत बड़ बोला है ।कुछ समझता नहीं बहस करने लगता है, तो मन खिन्न हो जाता है ।व्यापार में हाथ बटाने से बचता है। केवल बैठे-बैठे खाना चाहता है ।दूसरा भतीजा किशोर कुसंग की वजह से बदनाम है। हमने पूर्व जन्म में कौन सी ऐसे कर्म किए थे ,की ऐसे पुत्रों से पाला पड़ा। तुम्हारी भाभी बीमार रहती है ।किंतु ,बहू संस्कारी मिली है। सारी गृहस्थी वही संभालती है। हम सबका वही ख्याल रखती है।
डॉक्टर साहब- आप के पोते- पोती तो समझदार हैं ।पढ़ने में मन लगाते हैं या नहीं ।
सेठ जी -भैया ,मां दिन भर काम में व्यस्त रहती है पिता निकम्मा है। मित्र मंडली के साथ उसका सारा दिन गुजरता है। बच्चों पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है। बच्चे कुछ सीखना नहीं चाहते। ट्यूशन लगाया पर बच्चे पढ़ते ही नहीं ।बच्चों में जिज्ञासा ना हो तो बच्चे मिट्टी के माधव होते हैं ,जो देखने सुनने में सामान्य लगते हैं। किंतु , जिज्ञासा के भाव में कुछ जानते नहीं ना कुछ जानना जानना चाहते हैं। कूप- मंडूक की तरह उनका जीवन व्यतीत होता है ।
डॉक्टर साहब सुनकर गंभीर हो गए। बच्चों का भविष्य अंधकार मय है अभिभावकमोह -माया में भ्रमित हो भटक रहे हैं ।आखिर सेठ जी का जीवन कौन पार लगाएगा ।छोटे भतीजे से कोई उम्मीद नहीं है। अंत मे निराश होकर उन्होंने एक पंक्ति दोहराई-
“होई है वही जो राम रचि राखा।”
और सब कुछ विधाता पर छोड़ दिया। शायद यही सेठ जी का कष्ट दूर कर सकें। सेठ जी के हृदय पर सुकून का मरहम लगा सके।
रात्रि भोज के अवसर पर पूरा परिवार एकत्र हुआ। बड़ी बहू ने स्वादिष्ट व्यंजन बनाए थे ।चाचा जी की पसंद उसी चाची से मालूम तो गई थी। छोटी बहू बड़ी बहु के रहते कभी किचन का रुख नहीं करती थी ।सारा भोजन बड़ी बहू तैयार करती ।
छोटी बहू सारा दिन अपने कमरे में पड़े पड़े समय व्यतीत करती, और अपनी किस्मत को कोसती,कि कैसा पति उसके भाग्य में मिला है ,जो किसी काम का नहीं। दिनभर घूमना, रात भर एय्याशी करना, आधी रात पत्नी से लड़ाई झगड़ा करना ।यही उसकी दिनचर्या थी। दोनों भाइयों में बोलचाल कभी- कभार ही हो पाती थी।
खाने की मेज पर माहौल अत्यंत गंभीर था।