भगोरिया पर्व नहीं भौंगर्या हाट है, आदिवासी भाषा का मूल शब्द भौंगर्यु है जिसे बहुवचन में भौंगर्या कहते हैं। ✍️ राकेश देवडे़ बिरसावादी
मारू भौंगर्यू आप दें…
भगोरिया पर्व नहीं भौंगर्या हाट है, आदिवासी भाषा का मूल शब्द भौंगर्यु है जिसे बहुवचन में भौंगर्या कहते हैं।
✍️ राकेश देवडे़ बिरसावादी (सामाजिक कार्यकर्ता) 9617638602
भौंगर्या हाट क्या है?
“केसेवणिया फूल बयड़े रूलाये वो, आय गुया रे दादा भौंगर्या ने दहाड़ा”
आदिवासी भारत भूमि का इंडिजिनियस एबोरिजन आदिवासी गणसमूह है जो अरावली विंध्याचल सतपुड़ा सह्याद्री पर्वत माला और चंबल बनास लूनी साबरमती माही नर्मदा ताप्ती गोदावरी नदियों की उत्पत्ति काल से भारत की मूल मिट्टी पानी आबोहवा में जन्मा उपजा मूलबीज मूल वंश है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार विश्व में 47.6 करोड़ से अधिक आदिवासी लोग रहते हैं , जो 90 देशों में निवास करते हैं, 5 हजार विभिन्न संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, विश्व की 7 हजार भाषाओं में से अधिकतम भाषाएं बोलते हैं।भोले भाले प्राकृतिक जीवनशैली के आदिवासी समाज मे आदिम परंपरा के कई अनगिनत प्राकृतिक उत्सव तथा त्यौहार मनाये जाते हैं।इनमे सबसे महत्वपूर्ण भौंगर्या हाट होता है।जब पुरा आदिवासी समाज खरिफ रबी की फसल काटकर खेतीबाड़ी के कामो से निवृत्त हो जाता है , केसवणिया के फूल अपनी सुंदरता से प्रकृति को सुशोभित करते है तब मार्च महीने में होली उत्सव से पहले अपनी पारंपरिक वेशभूषा में सज धज कर उत्साह के साथ पूरे कुटुबं परिवार सगाजनो के साथ ढोल मांदल पर पारंपरिक आदिवासी लोक नृत्य करते हुए पैदल या बैलगाड़ी मे बैठकर जाते है व नजदीक एक गाँव या कस्बे मे एक हाट (बाजार) मे इकट्ठा होते हैं जिसे भौंगर्या हाट कहा जाता है। आदिवासी भाषा का मूल शब्द भौंगर्यु हाट है जिसे बहुवचन मे भौंगर्या हाट कहते हैं।यह एक विशेष दिन होता है ।भौंगर्या का शाब्दिक अर्थ-इकठ्ठे होकर हल्ला-गुल्ला (आदिवासी में) है।बच्चों के इकठ्ठे होकर हल्ला गुल्ला करने पर आदिवासी भाषा मे बुजुर्ग बच्चों को डांटते हुए कहते है – ‘अथा जाऊं काम वाम करू, या काई भौंगर्यू भर रया।’ कई सालों पहले प्रकृति की गोद मे पहाड़ों जंगलो मे बसे आदिवासी क्षेत्रों में संचार तथा यातायात के साधन उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में दूर दूर रहने वाले कुटुबं परिवार के दोस्त रिश्तेदार कई महिनो तक नहीं मिल पाते थे, ऐसी स्थिति में इस भौंगर्या हाट के माध्यम से आपस मे एक दुसरे से मिलकर खुश हो जाते हैं।इस विशेष हाट मे सभी आदिवासी सगाजन सजधजकर आते है ।बहुत अधिक संख्या होने से मेला जैसे भर जाता है। मेले रूपी हाट को उत्सव के रूप मे मनाते है और दिन भर मांदल की थाप , बांसुरी की धुन पर आदिवासी लोकनृत्य करके खुशियाँ मनाते है। ढलती शाम को वापस नाचते गाते घर लौटते है। देश-दुनिया मे प्रख्यात आदिवासी संस्कृति,परम्परा की झलक इस विशाल हाट-बाजार में देखने को मिलती है जहा ढोल-मांदल,पावली(
बांसुरी)जैसे वाद्य यंत्र के साथ देशी महुआ की दारू , प्राकृतिक पेय ताड़ी की छाक के साथ सम्पूर्ण आदिवासी समाज एक रंग में रंगता हुआ दिखाई देता है । जहां सारे झगड़े गीले-शिकवे दूर कर एक दुसरे से मिलकर अभिवादन स्वरूप जय जोहार , आपकी जय, जय आदिवासी, जय सेवा ,राम रामी, करते है। हालचाल पूछते हुए कहते है वारला छै की?पुर्या पारी कसला? ,( मतलब हालचाल जानना) जहाँ उनकी एकता भी नजर आती है।यह आदिवासी समाज का कोई त्यौहार न होकर केवल और केवल हाट बाजार मात्र है । जिसमे प्राकृतिक रीति भांति मे लगने वाली आवश्यक घरेलू वस्तुए मूंगड़ा गुड़ दाली कांकण खजूर माजम आदि खरिदते है।
“मारू भोंगर्यू आपदे“:
भौंगर्या हाट के बाद फाग मांगने की परंपरा आदिवासी समाज में हैं।बकरे की खाल से ढाक बनाकर उसे बजाते हुए उस पर लोकनृत्य करते हुए फाग मांगा जाता है।अलग-अलग गांव का दल बनता हैं जिसे “गेहर खेलना“ बोलते हैं। यह गेहर, तीन दिन, पांच दिन या सात दिन अलग-अलग गांवों में जाकर फाग मांगती हैं।इसमे अलग-अलग वेष-भूषा में लोग प्रत्येक घर के सामने ढोल-मांदल के साथ में नृत्य करते हैं और उसके बाद फाग के रूप में अनाज दाल प्राप्त करते हैं तथा इस गेहर में राहवी, काली व बुडला होते हैं। वह अपनी भाषा में बोलते हैं कि “मारू भोंगर्यू आपदे“ अर्थात मेरा भोंगर्या दे दो।
आदिवासी गीत संगीत मे भौंगर्या:
भौंगर्या हाट के ऊपर कई गीतकारों ने गीत लिखे हैं जैसे – काई रे म्हारा भाया, भौंगर्या ना दहाणा आई ग्या रे, अर्थ एक बहन अपने भाई से उत्साह पूर्वक यह कहती है – भैया भौंगर्या के दिन आ गए हैं। “भौंगर्या मा आवी वो जुवानय , चाल म्हारा साथ धोरले म्हारू हाथ तुसे काजै भौंगर्यू देखाणु वो ” अर्थ एक नवविवाहित पति अपनी पत्नी से कहता है भौंगर्या मे आई है यहाँ भीड़ बहुत है, तुम मेरा हाथ पकड़ कर मेरे साथ साथ चलो। केसवणिया फूल बयणे रूलाये रे, आई गया रे दादा भौंगर्या ने दहाणे। अर्थ केसवणिया के फूल पहाड़ पर खिलकर प्रकृति को सुशोभित कर रहे हैं,दादा भौंगर्या के दिन आ गयें।देवर भाभी के पवित्र मां बेटे जैसे रिश्ते में मजाकिया अंदाज में कहा गया है हैं-“भाभीन भोरसे भौंगर्यु नी जाणु रे अर्थात एक देवर को बड़े भाई की पत्नी यानी उसकी मां समान भाभी के भरोसे भौंगर्या हाट नहीं जाना चाहिए बल्कि स्वयं के पास भी खर्च करने के लिए कुछ पैसे होना चाहिए।
दुष्प्रचार बंद हो:
आदिवासी समाज के इस प्राकृतिक पवित्र भौंगर्या हाट को भगोरिया पर्व,
प्रणव पर्व, आदिवासियों का वेलेंटाईन डे इत्यादि कई अपमानजनक शब्दों द्वारा दुष्प्रचारित किया जाता है।साथ ही मनगढंत कहानी बनाकर आदिवासी समाज की भावनाओं को ढेस पहुंचाकर यह कहा जाता है कि आदिवासी युवक-युवती आते है तथा एक दूसरे को पंसन्द करते है। और पंसन्द होने पर एक दुसरे को गुलाल लगाते है, या पान बिडा खिलाते है। यदि युवती गुलाल लगाने देती है, या पान खा लेती है तो सहमति समझी जाती है एवं दोनो भागकर शादी कर लेते है परन्तु यह बात पुरी तरह से तर्कहीन एंव पुर्णतः गलत है। क्योंकि आदिवासी समाज मे शादी तय करने से आदिवासी रीति रिवाज अनुसार पहले दोनो युवक-युवती गौत्र का पता लगाया जाता है, क्योकि समान गौत्र,माता की गौत्र,माता की माँ की गौत्र, पिता की माँ की गौत्र मे विवाह पुर्णतः वर्जित होता है। और जहाॅ तक गुलाल लगाने व पान खिलाने की बात है उसके भी अलग-अलग कारण है। गुलाल लगाने व पान खिलाने का अर्थ यह नही होता है, कि युवक-युवती के एक दुसरे को पंसद कर लिया बल्कि उसका वास्तविक अर्थ यह है कि होली का डांडा (सेमल का पेड़) गढ जाने पर उसके आगमन की खुशी मे एक दुसरे को गुलाल लगाया जाता है। यह गुलाल भाई-बहन, माता-पिता, सगे-संबधियो , मित्रो एंव अपरिचितो सबको लगाया जाता है। इसी तरह पान खिलाने की परम्परा आदिवासी समाज मे काफी पुरानी है और किसी भी अवसर पर जब एक दुसरे से मिलते है। तब एक दूसरे का मान सम्मान रखने एंव मिलने की खुशी मे पान खिलाते है। यह अक्सर ईंदल, साप्ताहिक बाजार या सामान्य तौर पर एक दुसरे से मिलने का हो सकता है। न कि सिर्फ भोंगर्या हाट का और न ही इसका मकसद एक दुसरे को पसंद करने का इजहार होता है। यह एक शुद्व सामाजिक परंपरा है। जैसे की एक-दूसरे से मिलने पर चाय-काॅफी का पूछते हैं। यह पान भी भाई-बहन, माता-पिता, सगे-संबधिंयों या मित्रों को खिलाया जाता हैं, इसका मतलब यह कदापी नही होता हैं की वह विवाह सूत्र में बंधने वाले हैं। वैसे अखातिज माह में आदिवासी समाज में कोई मांगलिक कार्य नही होते है। दूसरी बात यह भी उल्लेखनीय हैं कि होली का डांडा जब गढ़ जाता हैं तब से लेकर अखातीज के महीने की शुरूआत तक शादी-ब्याह तो क्या आदिवासी समाज में कोई भी मांगलिक कार्य नही होता हैं, क्योकि इन दो महिनों में मांगलिक कार्य पूर्णतः प्रतिबंध होता हैं। भौंगर्या हाट को पर्व की संज्ञा देना तर्क संगत नही हैं। क्योकि सभी धर्म समुदायों में उनके द्वारा जितने भी तीज त्योहार मनाये जाते हैं। उनमें किसी न किसी देवी-देवताओं, इष्टदेव या कुलदेवी का पूजन किया जाता हैं। इसी प्रकार आदिवासी समुदाय में दितवारिया, निपी (बाबदेव), नवई, दिवासा, ईंदल, चौदस, दिवाली, होली आदी जितने भी त्योहार मनाये जाते हैं, उन सभी अवसरों पर किसी न किसी देवी-देवता, या इष्टदेव, कुलदेवी, खत्रीज (पूर्वज) या प्रकृति की पूजा-अर्चना की जाती हैं। परन्तु “भोंगर्या हाट“ में किसी भी देवी-देवता, या इष्टदेव, कुलदेवी, खत्रीज (पूर्वज) की पूजा नही की जाती हैं। भगोरिया परिणय पर्व नही बल्कि भोंगर्या हाट है । वर्तमान मिडीया और आदिवासी समाज की अज्ञानता के चलते भौंगर्या हाट को झूठे प्रचार कर प्रकृति के करीब अंजान आदिवासी समाज का राष्ट्रीय,अंतराष्ट्रीय स्तर पर मजाक उड़ाया गया।
इस तरह की अफवाहों के चलते देश-विदेश का मीडिया इन आदिवासी क्षेत्रों में भौंगर्या के समय आता है। कई साहित्यकार लेखक,निर्देशक भी आते है , उनके द्वारा सही जानकारी के अभाव मे मनगढ़ंत कुछ भी लिख दिया जाता है जिसकी वजह से आदिवासी समाज की लड़कियां खतरे में आ गयी है,
पिछले 5 सालों का आंकड़ा बताये तो ग्रामीणों अनुसार करीब 1200 नाबालिक, सेकड़ो 15-25 साल की लडकिया लापता है।
ये अलग अलग गाँव मे जाकर पूछने पर बताये गए आंकड़े है।लोगो को लगता है के वो भाग गई जबकि असल मे उसके साथ घटना कुछ और ही होती है।
विश्व प्रसिद्ध भौंगर्या हाट वालपुर निवासीयो अनुसार पहले गाँव की लड़कियां सुरक्षित महसूस करती थी लेकिन वर्तमान स्थिति वैसी नही है ,अब छेड़छाड़ की घटनाएं बढ़ गयी है,अखबारों ओर मीडिया में भी गलत प्रचार कर बाहरी लोगों को यहां आने के लिए प्रेरित किया जा रहा है जिसकी वजह से बाहरी लोग इसे मनोरंजन के लिए सही जगह समझने लगे है।इसको लेकर मध्यप्रदेश सरकार के टूरिज्म विभाग द्वारा भी केम्प लगाया जाता रहा है किंतु पिछले 2 सालों से बन्द हो गया। छेड़छानी की घटना से निपटने के लिये पिछले 2-3 सालो में पुलिस प्रशासन ने सख्ती दिखाई है।
आदिम समुदाय तथा होली उत्सव का प्राकृतिक सहसंबंध:
होली उत्सव आदिवासी संस्कृति अनुसार चार मूल बिंदु पर आधारित हैं
(1) शुद्ध फसली उत्सव हैं
(2) वार्षिक मौसम बदलाव का उत्सव हैं
(3) वार्षिक नेटिव वनस्पति बदलाव का उत्सव हैं
(4) वार्षिक फसली उत्सव शृंखला चक्र समापन पूर्णिमा हैं।
आदिवासियों के सांस्कृतिक विरासत में होली पर कई महत्वपूर्ण कार्य होते हैं :
(1) माघ पूर्णिमा पर वर्ष भर में मरने वाले महिला-पुरूष का फूल (बाल, नाखून, हड्डी, राख) नदी संगम में प्रवाहित करना,जो वर्ष में एक बार ही होता हैं।
(2) माघ पूर्णिमा को ही सालभर के झगड़े निपटाने की परंपरा है, वैसे झगड़ा तत्काल निपटाने की न्याय परम्परा हैं, मगर जो झगड़ा बचा हुआ रह गया, वो भी इस दिन हरहाल में समाधान करने की परम्परा हैं, होली के एक माह पहले झगड़ा निपटने से जीवन सामान्य हो जाता हैं और होली के खेल-नृत्य के दौरान कोई विवाद-झगड़ा ना होवे।
(3) माघ पूर्णिमा को ही होली की शुरुआत स्वरूप होली का डांडा रोपा जाता है, होली का डांडा रोपने के दिन से ढोल बजा सकते हैं, यह परम्परा प्राप्त विधि-नियम है।
(4) वर्षभर में जो भी लोग मरे है, उनके घर जाकर हुग भागवा परंपरा निभाई जाती हैं, ताकि जिस घर में मौत-मरण हुआ है, उस परिवार को होली की खुशी में शामिल किया जा सकें, यह एक व्यक्ति के मरने पर होली और दिवाली पर दो ही बार हो सकता हैं।
(5) जिन दुल्हन-दूल्हा की पिछले साल में नई शादी हुई थी, उनकी हामीझाल होती हैं, सारा दिन भूखे रह कर रात 12 बजे के आसपास होली जलाकर सारे गांव के साथ भोजन बनाकर सबके साथ खाते हैं।सुबह नारियल लेकर जाते हैं, होली में नारियल डाल कर उन्ही नारियलों से खेलते हैं।
(6) एक सप्ताह पूर्व होली की खरीददारी हाट (भोंगर्या) के साथ जिन महिला-पुरूष का पहला बच्चा होता है, उस बच्चे को फाल्गुन एकादशी के बाद से होली के एक दिन पहले तक स्वागत जोहार अभिनंदन (ढूंढ) किया जाता हैं, यह नई पीढ़ी का स्वागत है। यह परम्परा भी किसी भी व्यक्ति के जीवन में एक बार ही होती हैं।।। होली के दिन उस बच्चे को पहली होली दर्शन करवाया जाता हैं।
6.होली के अवसर पर विशेष नृत्य गेर खेली जाती हैं, जो युद्ध अभ्यास कला से प्रेरित हैं।सर्दी के मौसम में शारिरिक अकड़न खत्म करने के लिए विशेष कला का अभ्यास ही गेर नृत्य हैं। यह गेर नृत्य वर्ष में केवल होली पर ही होता है।।। होली पर महिला-पुरूष की नृत्य कतार अलग होती हैं। यदि किसी ने अनुशासन भंग किया तो तत्काल झगड़ा तय है।
(8) इस दिन भाभियाँ अपने देवर से गोठ लेती हैं, यह केवल वर्ष में एक बार होली पर ही लेती हैं। किसी भी तरह की कोई अश्लील हरकत बर्दाश्त नहीं की जाती हैं, आनंद ही आनंद का उत्सव हैं।
(9) इस दिन ही मामा-भांजा द्वारा पीपल वृक्ष प्राकृतिक पूजा के लिए धागा अभिमंत्रित कर पवित्र किया जाता हैं।
(10) रात को होली की लपटें किस दिशा और रंग कैसा है? देख कर आने वाली बारिश कैसी होगी? पूर्वानुमान लगाते हैं, यह भी केवल होली पर वर्ष में एक बार ही होता हैं।
जनसंपर्क विभाग, पत्रकारों , साहित्यकारों ,इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया जगत से आदिवासी समाज की अपील :
प्रकृति पूजक आदिवासी समाज देश के समस्त पत्रकारों साहित्यकारों इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया से यह अपील करता है कि उनकी संस्कृति के अहम हिस्से भौंगर्या हाट के बारे में गलत व अपमानजनक बाते ना छापे। आदिवासी समाज के लिए “भगोरिया पर्व” एक गाली है ,यह भगोरिया पर्व नहीं “भोंगर्या हाट” है। भौंगर्या हाट को गलत नाम जैसे – भगोरिया पर्व’ प्रणव पर्व, आदिवासियों का वैलेंटाइन डे आदि से इसका दुष्प्रचार न किया जाए। इसमें किसी भी देवी देवता की पूजा नहीं की जाती है और न तो इसमें रिश्ते तय होते हैं और ना ही शादी होती है। इसमें लड़का लड़की भाग कर मनपसंद शादी बिल्कुल नहीं करते हैं यह दुष्प्रचार है । होली का डांडा खड़ा होने के बाद आदिवासी समाज में शादी तो क्या कोई भी मांगलिक कार्य नहीं होता है और यदि गलती से शादी कर भी लेते हैं तो समाज के बुजुर्गों का कहना है उस महिला के बच्चे पैदा नहीं होते यानी वह बांझ रह जाती है ।इसकी वास्तविकता एवं आदिवासी समाज को होने वाले आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक नुकसान से अवगत करवाने में समाज के लोगों के साथ ही अन्य समाज तथा इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया भी सहयोग प्रदान करें। ये एक परम्परागत हाट है जो वर्तमान में त्योहार का रूप ले चुका है लेकिन मीडिया में इसे पर्व के रूप मे प्रकाशित किया जाता है जो पूरी तरह गलत है।इस मिथक को तोड़ने की अपील करते हुए मीडिया वाले बंधुओ से आदिवासी समाज अनुरोध करता है कि आप आदिवासी समाज की संस्कृति से भलीभाँति परिचित है इसलिए भ्रामक जानकारी न फैलाते हुए आदिवासी शब्दों का प्रयोग करे। वनवासी व जनजाति जैसे शब्दों से समाज की भावना आहत होती है। आप इसे भगोरिया की जगह भौंगर्या लिखे ओर वेलेन्टाइन डे ,परिणय पर्व तो बिल्कुल न लिखे क्योंकि समाज का आधार संस्कृति ही है बिना संस्कृति,परम्परा के समाज संचालित नही हो सकता है और आदिवासी संस्कृति,परम्परा विश्व की धरोहर है इसीलिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ही 9 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस की परिकल्पना कर घोषित किया गया था।भौंगर्या हाट की वास्तविक जानकारी आदिवासी समाज में जन्म लेने वाला व्यक्ति ही बता सकता है इसलिए आधी अधूरी जानकारियों को प्रकाशित नहीं करें।
तिवाहरिया हाट ,भौंगर्या हाट व उजाडि़या हाट:
होली डांडा खड़ा होने के अंतिम सप्ताह के हाट बाजार में खरीदी जन समूह भोंगर्या, (भोंगर्यु)हाट बाजार कहलाता है, गांव कस्बे के लोग अपने नजदीकी बाजारों में जाते है, इस हाट के पूर्व सप्ताह 7 दिवस को तिवाहरिया हाट बाजार कहा जाता है, और भोंगर्या हाट बाजार के 7 दिवस की समाप्ति एवम होली डांडा गिरने यानी होली जलने के उपरांत साप्ताहिक 7 दिवस कुछ क्षैत्र स्तर आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में मेलादला कार्यकम 7 दिवस तक अलग अलग क्षेत्र में आयोजित होता है, जिसमे बीमारी से निदान हेतु चूल चाल मतलब एक आग की भट्टी बनाकर उसमें आग जलाकर बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को नंगे पैर उस अंगारों में चलाया जाता है और मान्यता रही है की मन्नत पूर्ण होती है,
साथ ही ढोल, मांदल पारंपरिक वाद्य यंत्र बजाकर सामूहिक नत्य एवम गीत गाते हुए उस चूली,आंग की भट्टी के चारो ओर पृथ्वी घूर्णन दिशा अनुरूप घूमते हुए सामूहिक नत्य होता है जिसे मेलादला, बोलते है जो अलग- अलग आदिवासी क्षेत्र में जिसमे भील,भिलाला, बारेला, पटेलिया, उपजातियों में अधीक मान्यता प्राप्त है,
इसके उपरांत के सप्ताह यानी 7 दिवस को उजाड़िया हाट बाजार यानी 7 दिवस तक बाजारों में लोग बहुत कम या जाते नही है,, इसलिए सुनसान बाजार रहने को अपनी क्षेत्रीय बोली, मातृ भाषा बोल चाल में उजाड़िया हाट बाजार कहा जाता है।
व्यापारिक लूट व राजनितिक दलों के झंडो से आदिवासी समाज की नाराजगी:
आदिवासी समाज के इस पवित्र भौंगर्या हाट में कई लोग लाभ कमाने के लिए स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाली सामग्रियों से खाद्य पदार्थ बनाकर बेच दिया करते हैं,भजिए, जलेबी ,कानकाकडी, खजूर दाली, अंगूर खराब गुणवत्ता की धड़ल्ले से बेची जाती है और उक्त खाद्य सामग्रियों को खुले में रखा जाता है जिससे धूल लग जाती है । कई रसायनों से शराब तथा ताड़ी बनाकर बेच दी जाती है जिससे कई लोग बीमार पड़ जाते हैं मौत तक हो जाती है। जुआ सट्टा चलाकर भोले भाले आदिवासी समाज के लोगों को खुलेआम लूटा जाता है। खाद्य विभाग तथा आबकारी विभाग के अधिकारियों को सतर्क रहकर निगरानी करना चाहिए वही दूसरी तरफ कई राजनीतिक दलों के लोग अपना झंडा लेकर भौंगर्या हाट मे भोले भाले आदिवासी लोगों के बीच राजनितिक स्वार्थ से चले जाते हैं जिसका संपूर्ण आदिवासी समाज घोर निंदा करता है। पिछले कुछ सालों में देखा गया है कि भौंगर्या हाट में राजनितिक पार्टी के कई दलो द्वारा इस सामाजिक हाट को राजनितिक अखाड़ा बनाया जा रहा हैं जो बिल्कुल गलत है।
लेखक: राकेश देवडे़ बिरसावादी (सामाजिक कार्यकर्ता, आदिवासी विचारक लेखक एवं साहित्यकार )9617638602