भक्त और अंधभक्त
कई बार निरर्थक शब्द भी बहुतायत में उपयोग के कारण समाज में अत्यधिक महत्वपूर्ण बन जाते हैं । इसके विपरीत अत्यधिक अर्थवान शब्द भी अपने अनुपयोग /दुरुपयोग के कारण अपनी महत्ता खो देते हैं ।
आज हम ऐसे ही दो शब्दों पर चर्चा करेंगे – भक्त और अंधभक्त पर । इन दिनों अंधभक्त शब्द बहुत अधिक प्रचलन में है । अंधभक्त शब्द को उसकी समग्रता और संपूर्णता में समझने के लिए आवश्यक है कि हम भक्त शब्द को सही अर्थों में समझें । जैसे प्रेम करने वाला प्रेमी होता है ऐसे ही भक्ति करने वाला भक्त होता है । भक्ति शब्द संस्कृत की “भज्” धातु से बना है ।”भज्” का अर्थ है भजना या सेवा करना । अर्थात कोई व्यक्ति जब अपने आराध्य या इष्ट को श्रद्धा और प्रेम पूर्वक स्मरण करता है , उसकी सेवा करता है तो उसे भक्त कहा जाता है। लेकिन यह भक्त की बहुत स्थूल परिभाषा है। वस्तुतः भक्त वह होता है जो अपने आराध्य के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होता है । भक्ति एक तरह का सघन और शाश्वत प्रेम है । यह प्रेम की सर्वोच्च अवस्था है । इसमें भक्त अपने आराध्य से किसी तरह की कोई अपेक्षा नहीं रखता। उसका अपना कोई अलग अस्तित्व या अहम नहीं रहता । उसके मन में अपने आराध्य के प्रति कोई संशय नहीं होता । अपने आराध्य को लेकर उसके मन में कोई प्रश्न नहीं होता । वह अपने आराध्य के प्रति पूर्णतः समर्पित होता है । भक्त कभी जागरूक भक्त नहीं होता। वह सदैव अंधभक्त होता है । उसका आराध्य ही उसके लिए सर्वस्व होता है । भक्त आंखों के होते हुए भी अपनी आंखें बंद रखता है , क्योंकि अपने आराध्य के अलावा किसी अन्य के दर्शन की उसकी अभिलाषा नहीं होती। अस्तु भक्त सदैव अंधभक्त होता है ।
परंतु आजकल अंधभक्त शब्द का प्रयोग किसी विचारधारा अथवा जननेता के अनुयायी के लिए किया जा रहा है । किसी विचारधारा का अनुगमन करने वाला व्यक्ति भी वस्तुत: अंध अनुयायी ही होता है । विचारधाराएं स्वविवेक के उपयोग की अनुमति नहीं देती हैं ।
उपरोक्त विश्लेषण के आलोक में हम कह सकते हैं कि अंधभक्त एक सर्वथा निरर्थक शब्द है ।
शिवकुमार बिलगरामी