ब्यथा
हे राही तू
ढूंढ रहा क्या ?क्या भूल गया तू राह ?
या नहीं रही अब तेरी आगे चलने की चाह।
तू है कौन मुसाफिर कौन देश का वासी ?
फटे बसनऔर घायल काया कहते एक कहानी.।
तेरी व्यथा परिचित सी लगती है
कुछ जानी अनजानी।
शायद वियोग की पीड़ा से
छाई मुख पर तेरे उदासी।
विस्मित आंखों से पल भर
उस ने ताका मुझको।
अवरुद्ध हुए पग उसके फिर
बाणी से व्यथा छलक पड़ी.
नाम मेरा मानवता है
था भारत का मूलनिवासी
अपने ही देश में बना पराया
घूम रहा हूं इधर उधर
अपनों ने मुझको ठुकराया
जिससे मुख पर मेरे उदासी !!
दानवता से घायल होकर
जान बचाता फिरता हूं
मिल जाए कदाचित कोई
साथी उठता हूं फिर गिरता हूं .
है बस एक व्यथा
क्या अब अस्तित्व मेरा रह पाएगा ?
दानवता की क्रूर चाल में
फंसकर ही मिट जाएगा
आर्यव्रत की देख दशा
छाई मुख पर मेरी उदासी।।
आतंकवाद की बलि वेदी
बन गया है सारा भूमंडल
चारों और हो रहा मौत का मानो एक दंगल
मां बहन बेटियों का भी
भूला मानव अब अंतर
हम और दौलत के पीछे
पागल हो रहा है हर नर
भाई काटे भाई का सिर
जिस से मुख पर मेरे उदासी !!
बोलो भाई अब क्या बोलूं
और क्या शेष रहा
निज मन की व्यथा व्यथा
सब तुम्हें बता दिया
चले गए स्वर्णिम दिन
अब मात्र इतिहास बचा
स्वार्थ ,कुटिलता चाटुकारिता
मानव का श्रृंगार बना.
चहूं दिश फैला जातिवाद विष
क्या मथुरा क्या काशी
जय प्रकाश श्रीवास्तव पूनम