बैठा हूँ उस राह पर जो मेरी मंजिल नहीं
खोए रिश्तों की राहों में,धुंधली बादल के नीचे,
ढूंढ़ रहा हूँ इधर उधर, मंजिल छूटा पीछे।
क्योंकि,
बैठा हूँ उस राह पर,जो मेरी मंजिल नहीं….
धुंध में छुपा हूँ, सपनों की तलाश में,
क्या पाऊँगा कभी, उड़ रहा हूँ आकाश में।
क्योंकि,
बैठा हूँ उस राह पर, जो मेरी मंजिल नहीं…..
चलते रहते हैं, अजनबी जगहों पर, खो देते हैं खुद को,
और फिर ढूंढ़ते हैं अपनी मंजिल को ।
क्योंकि,
बैठा हूँ उस राह पर, जो मेरी मंजिल नहीं…..
पर क्या मंजिल है ये, कौन जाने कब वहाँ बैठे,
हर कदम पर नईं राहें, नए सफरों का इन्तजार करते ।
क्योंकि,
बैठा हूँ उस राह पर ,जो मेरी मंजिल नहीं….
बैठा हूँ उस राह पर, जो मेरी मंजिल नहीं…..।।