*बे मौत मरता जा रहा है आदमी*
बे मौत मरता जा रहा है आदमी
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हर रोज गिरता जा रहा है आदमी,
बे-मौत मरता जा रहा है आदमी।
हर हाल घटता ही गया है दायरा,
जंजाल बुनता जा रहा है आदमी।
जीने लगो जीवन बचा है आखिरी,
बेकार करता जा रहा है आदमी।
बेखौफ़ बातें गलत क्यों है बोलता,
हर बार घटता जा रहा है आदमी।
बेबाक मनसीरत बता सकता नहीं,
किस ओर बढ़ता जा रहा आदमी।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)