बेरोजगार युवा
मन मसोसकर चित्त को मारे
चिन्ता में है डुबे सारे।
पढ़ – लिखकर भी क्या ही हुआ,
यह सोचता बेरोजगार युवा।।
बचपन में बचपन खोया क्यों,
सब खेल-कूद को रोका क्यों।
मित्रों से क्यों मैं जुदा हुआ,
यह सोचता बेरोजगार युवा।।
जब भ्रष्टाचार ही सहना था,
सपनों से हाथ ही धोना था।
फिर हर क्षण क्यों यह कष्ट सहा,
यह सोचता बेरोजगार युवा।।
क्यों मन्दिर जाकर पूजा की,
अपनी भक्ति की परीक्षा ली।
क्यों खुलकर यह जीवन न जिया,
यह सोचता बेरोजगार युवा।।
अब किस्मत को भी कोसूं क्यों,
अब दुख भी है पर रोऊं क्यों।
जब मेहनत से ही कुछ न हुआ,
यह सोचता बेरोजगार युवा।।
यदि इक कौशल सीखा होता,
तो बेरोजगार नहीं होता।
क्यों पुस्तक में ही डूबा रहा,
यह सोचता बेरोजगार युवा।।
अब कौन सा मैं इक काम करूं,
किस दिशा में मुड़कर नाम करुं।
फिर बार – बार चलता हुआ,
यह सोचता बेरोजगार युवा।।
दुर्गेश भट्ट