“बेटी पराई”
उस आँगन से
उठ गई डोली
बेटी पराई थी
वो जन्मदाता,
माँ-बाप
ना देख सके बेटी को
पराई होते हुए ।
वो पंडित,
वो रिश्तेदारों की आँखें
झलक आयीं
चारों कोनों से
आ रही थी आवाज—
भाईयों की ।
वो आग की लपटें भी
चीख उठीं…
बेटी पराई थी
फेरे आँगन में थे
आवाज कमरे से थी
किसी के आँगन से जुदाई थी,
किसी की बेटी
आज होने वाली पराई थी ।
बच्चे तैयार थे
पैसे बटोरने को,
बच्चों का क्या कसूर
बेटी पराई थी …
छोटा भाई दौड़ते हुए गया
कुछ कर ना सका
क्योंकि उसकी बहन अब पराई थी।
विदाई के बाद
वो आँगन, वो मोहल्ला
ख़ामोशी से गूँज उठे
लोगों ने कह दिया
कि जाना ही पड़ता एक ना एक दिन
इस आँगन को छोड़कर—
क्योंकि बेटी पराई थी ।
— ऋतु चाहर