बेटियाँ
कभी मंदिर में उसको पूजा था,घर आई तो ठुकराया हैं।
क्यों समाज के डर से उसको बलिवेदी पे चढ़ाया है।
वरदान ईश का अंश तेरी ऋंगार है तेरे मधुवन की।
तुलसी है वो तेरे आँगन की है बेटी वो तेरे घर की।
उसके कदमो की आहत से मन गुंजित हो कर झूमेगा।
जिसे बोझ अभी समझ रहे जग उसके पद को चूमेगा।
लाड पिता का माँ की ममता क्या सब कुछ बिसराया है।
क्यों समाज के डर से उसको बलिवेदी पे चढ़ाया हैं।।
जन्म उसे भी लेने दो घर बेटी रौनक लाएगी।
नन्हे नन्हे कदमो के पदचिन्ह छोड़ती जायेगी।
तुम्हे उदासी घेरे जब निज किलकारी से हँसायेगी।
तेरे मन के सुने कानन में अपनी सुगंध फैलाएगी।
तुम भी नेह लुटाना उसपर क्यों चितवन मुरझाया हैं।
क्यों समाज के डर से उसको बलिवेदी पे चढ़ाया हैं।
नही बोझ तेरे कंधो पर इक दिन सहारा बन जायेगी।
जब कदम तुम्हारा साथ तजे वो हाथ थाम दिखलाएगी।
अभिशाप नही वरदान बेटी दो कुल को पार लगाती है।
पग दंश पड़े माँ बाप के तो निज पलको को भी बिछाती है।
माली तेरे उद्यान पुष्प पर भय कैसा मंडराया हैं।
क्यों समाज के डर से उसको बलिवेदी पे चढ़ाया हैं।
करती है अरदास बेटी कर जोड़ कोख मुझे मत मारो।
मात पिता हो मेरे मुझको लेकर अंक में दुलारों।
मेरा अस्तित्व मिटा कर फिर तुम भी तो खो जाओगे।
जो कन्या हीन हुई धरती तो पुत्र कहाँ से पाओगे।
बेटी ही आधार विश्व का सबने यही बताया है।
क्यों समाज के डर से उसको बलिवेदी पे चढ़ाया हैं।।
शाम्भवी मिश्रा