बेइंतहा इश्क़
तेरा इश्क
सचमुच इश्क है तो
पूरी जात से क्यों न हो
सारे मुल्क
सारे समाज
सारी कायनात से क्यों न हो…
(१)
खूनी
इंक़लाब के बाद
तानाशाही आती है अक़्सर
दुनिया बदलने
की कोशिश
अख्लाक से क्यों न हो…
(२)
रूह अगर
न हो उसमें तो
जिस्म है एक सड़ती हुई लाश
इंसानी रिश्तों
का आगाज़
इख़्लास से क्यों न हो…
(३)
बंदगी की
शिद्दत से तो
पत्थर भी ख़ुदा हो जाता है
फिर महबूब के
दिल में जगह
जज़्बात से क्यों न हो…
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Shekhar Chandra Mitra
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