बूढ़ी माँ …
बूढ़ी माँ …
अपनी आँखों से
गिरते खारे जल को
अपनी फटी पुरानी साड़ी के
पल्लू से
बार- बार पौंछती
फिर पढ़ती
गोद में रखी रामायण को
बूढ़ी माँ
व्यथित नहीं थी वो
राम के बनवास जाने से
व्यथित थी वो
अपने बिछुड़े बेटे के ग़म से
जिसका ख़त आये
ज़माना बीत गया
चूल्हा रोज जलता
उसके नाम की
रोटी भी रोज बनती
रोज उसे खिलाने की प्रतीक्षा में
रोटी हाथ में लिए लिए
सो जाती
बूढ़ी माँ
राम की रामायण में
राम लौट आया था
जाने मेरा राम कब लौटेगा
लौटेगा भी या नहीं
या फिर लौटेगा तो
इस प्रतीक्षा करती
कौशल्या के
चले जाने के बाद
यही सोचती
रामायण में डूबी
कभी
गीली आँखों से
धुंधले अक्षरों को पढ़ती
तो कभी
खुले द्वार पर
अपनी श्वास और
प्रतीक्षा की दूरी को मिटाती
अधमुंदी आँखों में
सो जाती
बूढ़ी माँ
सुशील सरना/