बुलबुलों का सतही सच
“बुलबुलों का सतही सच”
कुछ न होते हुए भी, कुछ बन कर, हमें बनाने वालों
ऐसे बनने से, हमारा, कुछ न बन पाना, ही बेहतर है
मैं जो हूं, जैसा भी हूं, खुद को, साफ दिखाई देता हूं
आपका उन नज़रों से मुझे न देख पाना ही बेहतर है
सच्चाई, हर हकीकत की, सामने, आकर ही रहती है
जब तक छुप सके, आपका उसे छुपाना ही बेहतर है
ज़िंदगी की राह में, पुते चेहरे, अच्छे लगते हैं दूर ही से
करीबी ताल्लुकातों में रंगरोगन न लगाना ही बेहतर है
हांडी हो काठ की या हो महल ताश का टिकते नहीं हैं
इन का तो कल के बदले आज ढह जाना ही बेहतर है
किसी के, बनने में, किसी का बिगड़ना, जरूरी नहीं है
जैसे भी आए, इस बात का, समझ आना ही बेहतर है
~ नितिन जोधपुरी “छीण”