बुलंद भारत
मेरा भारत आज कैसा बुलंद बन रहा है ,
भान नहीं यद्यपि अर्थ का, पर स्वच्छंद बन रहा है ।
न्याय की चौखट पर ही मृत्युदंड देकर,
खुद की ही नजरों में वह न्याय पसंद बन रहा है ।
संभ्रांत जन का वेश बना कर के ,
नील श्रृंगाल से चालाकी का अनुबंध कर रहा है
कड़ी सुरक्षा में भी सुरक्षित नहीं है अब
गुनहगारों को सजा दे कर नए छंद गढ़ रहा है ।
क्या निष्ठा नहीं इस व्यवस्था पर ,
जो सारे फैसले स्वयं ही अविलंब कर रहा है
मकरंद सी सुगंध फैलेगी जरा सब्र तो कर,
नई पीढ़ियों में तू ये कैसी दुर्गंध भर रहा है ।
अत्यंत मंद ही सही अदालतों के फरमान यहां,
जुल्मी को सजा दे कर तू अपने भी गुनाहों के पन्ने चंद भर रहा है।